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________________ जैन धर्म की आस्तिकता ९९ सकते हैं. 'नास्तिको जैन-निन्दकः।' परन्तु यह कोई अच्छा मार्ग नहीं है। यह कौन-सा तर्क है कि ब्राह्मण धर्म के ग्रन्थों को न मानने वाला नास्तिक कहलाए और जैन-धर्म के ग्रन्थों को न मानने वाला नास्तिक न कहलाए ? सच तो यह है कि कोई भी धर्म अपने से विरुद्ध किसी अन्य धर्म के ग्रन्थों को न मानने मात्र से नास्तिक नहीं कहला सकता। यदि ऐसा है तो फिर सभी धर्म नास्तिक हो जाएँगे, क्योंकि यह प्रत्यक्ष सिद्ध है कि सभी धर्म क्रियाकाण्ड आदि के रूप में कहीं न कहीं एक-दूसरे के परस्पर विरोधी हैं। दुःख है कि आज के प्रगतिशील युग में भी इन थोथी दलीलों से काम लिया जाता है और व्यर्थ ही सत्य की हत्या करके एक-दूसरे को नास्तिक कहा जा रहा है। वेदों का विरोध क्यों? __ जैन-धर्म को वेदों से कोई द्वेष नहीं है। वह किसी प्रकार की द्वेष बुद्धिवश वेदों का विरोध नहीं करता है। जैन-धर्म जैसा समभाव का पक्षपाती धर्म भला क्यों किसी की निन्दा करे ? वह तो विरोधी से विरोधी के सत्य को भी मस्तक झुका कर स्वीकार करने के लिए तैयार है। आप कहेंगे, फिर वेदों का विरोध क्यों किया जाता है ? वेदों का विरोध इसीलिए किया जाता है कि वेदों में अजमेध, अश्वमेध आदि हिंसामय यज्ञों का विधान है और जैन-धर्म हिंसा का स्पष्ट विरोधी है। फिर धर्म के नाम पर किए जाने वाले निरीह पशुओं का वध तो तलवारों की छाया के नीचे भी सहन नहीं किया जा सकता। क्या जैन परमात्मा को नहीं मानते ? जैन-धर्म को नास्तिक कहने के लिए आजकल एक और कारण बताया जाता है। वह कारण बिल्कुल ही बेसिर-पैर का है, निराधार है। लोग कहते हैं कि 'जैनधर्म परमात्मा को नहीं मानता, इसलिए नास्तिक है।' लेकिन प्रश्न यह है कि यह कैसे पता चला कि जैन-धर्म परमात्मा को नहीं मानता ? परमात्मा के सम्बन्ध में जैन-धर्म की अपनी एक निश्चित मान्यता है। वह यह है कि जो आत्मा राग-द्वेष से सर्वथा रहित हो, जन्म-मरण से सर्वथा मुक्त हो, केवल ज्ञान और केवल दर्शन को प्राप्त कर चुकी हो, न शरीर हो, न इन्द्रियाँ हों, न कर्म हो, न कर्मफल हो वह अजर, अमर, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त आत्मा ही परमात्मा है। जैन-धर्म इस प्रकार के वीतराग आत्मा को परमात्मा मानता है। वह प्रत्येक आत्मा में इसी परम-प्रकाश को छुपा हुआ देखता है। कहता है कि हर कोई साधक वीतराग भाव की उपासना के द्वारा परमात्मा का पद पा सकता है। इस स्पष्टीकरण के बाद यह सोचा जा सकता है कि जैन-धर्म परमात्मा को कैसे नहीं मानता है ? वैदिक-धर्मावलम्बी विचारक कहते हैं कि 'परमात्मा का जैमा स्वरूप हम मानते हैं वैसा जैन- धर्म नहीं मानता, इसलिए नाम्निक है। यह तर्क नहीं, लताग्रह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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