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________________ - ९६ चिंतन की मनोभूमि प्रत्युत वह अनन्त-अनन्त शक्तियों का पुंज है। वह देवताओं का भी देवता है, स्वयंसिद्ध ईश्वर है। परन्तु जब तक वह संसार की मोह-माया के कारण कर्म-मल से आच्छादित है, तब तक वह अन्धकार से घिरा हुआ सूर्य है, फलतः प्रकाश दे तो कैसे दे? सूर्य को प्रकाश देने से पहले रात्रि के सघन अन्धकार को चीरकर बाहर आना ही होगा। हाँ, तो ज्यों ही मनुष्य अपने होश में आता है, अपने वास्तविक आत्मस्वरूप को पहचानता है, पर-परिणति को त्याग कर स्व-परिणति को अपनाता है, तो धीरेधीरे निर्मल, शद्ध एवं स्वच्छ होता चला जाता है, और एक दिन अनन्तानन्त जगमगाती हुई आध्यात्मिक शक्तियों का पुंज बनकर शुद्ध, बुद्ध, परमात्मा, अरिहन्त, ब्रह्म तथा ईश्वर बन जाता है। श्रमण-संस्कृति में आत्मा की चरम शुद्ध दशा का नाम ही ईश्वर है, परमात्मा है। इसके अतिरिक्त और कोई अनादि-सिद्ध ईश्वर नहीं है। कहा भी है—"कर्म-बद्धो भवेज्जीवः, कर्ममुक्तस्तथा जिनः।" यह है श्रमण-संस्कृति का उत्तारवाद, जो मनुष्य को अपनी ही आत्म-साधना के बल पर ईश्वर होने के लिए ऊर्ध्वमुखी प्रेरणा देता है। यह मनुष्य के अनादिकाल से सोये हुए साहस को जगाता है, विकसित करता है और उसे सत्कर्मों की ओर उत्प्रेरित करता है, किन्तु उसे पामर मनुष्य कहकर उत्साह भंग नहीं करता। इस प्रकार श्रमण-संस्कृति मानवजाति को सर्वोपरि विकास-बिन्दु की ओर अग्रसर होना सिखाती है। श्रमण-संस्कृति का हजारों वर्षों से यह उदघोष रहा है कि वह सर्वथा परोक्ष एवं अज्ञात ईश्वर में बिल्कुल विश्वास नहीं रखती। इसके लिए उसे तिरस्कार, अपमान, लाञ्छना, भर्त्सना और घृणा, जो भी कड़वे-से-कड़वे रूप में मिल सकती थी, मिली। परन्तु वह अपने प्रशस्त-पथ से विचलित नहीं हुई। उसका हर कदम पर यही कहना रहा कि जिस ईश्वर नामधारी व्यक्ति की स्वरूप-सम्बन्धी कोई निश्चित रूप-रेखा हमारे सामने नहीं है, जो अनादिकाल से मात्र कल्पना का विषय ही रहा है, जो सदा से अलौकिक ही रहता चला आया है। वह हम मनुष्यों को क्या आदर्श सिखा सकता है ? उसके जीवन एवं व्यक्तित्व से हमें क्या कुछ मिल सकता है ? हम मनुष्यों के लिए तो वही आराध्यदेव आदर्श हो सकता है, जो कभी मनुष्य ही रहा हो, हमारे समान ही संसार के सुख-दु:ख एवं माया-मोह संत्रस्त रहा हो, और बाद में अपने अनुभव एवं आध्यात्मिक जागरण के बल से संसार के समस्त सुखभोगों को ठुकरा कर निर्वाण-पद का पूर्ण अधिकारी बना हो, फलस्वरूप सदा के लिए कर्म-बन्धनों से मुक्त होकर, राग-द्वेष से सर्वथा रहित होकर अपने मोक्ष-स्वरूप अन्तिम आध्यात्मिक लक्ष्य पर पहुँच चुका हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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