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________________ अवतारवाद या उत्तारवाद ९७ 'जन' में 'जिनत्व' के दर्शन : श्रमण-संस्कृति के तीर्थङ्कर, अरिहन्त, जिन एवं सिद्ध सब इसी श्रेणी के साधक थे। वे कोई प्रारम्भ से ही ईश्वर न थे, ईश्वर के अंश या अवतार न थे, अलौकिक देवता न थे। वे बिल्कुल हमारी तरह ही एक दिन इस संसार के सामान्य प्राणी थे, पापमल से लिप्त एवं दुःख, शोक, आधि, व्याधि से संत्रस्त थे। इन्द्रिय-सुख ही एकमात्र उनका ध्येय था और उन्हीं वैषयिक कल्पनाओं के पीछे अनादिकाल से नाना प्रकार के क्लेश उठाते, जन्म-मरण के झंझावात में चक्कर खाते घूम रहे थे। परन्तु जब वे आध्यात्मिक-साधना के पथ पर आये तो सम्यग्दर्शन के द्वारा जड़-चेतन के भेद को समझा, भौतिक एवं आध्यात्मिक सुख के अन्तर पर विचार किया, फलतः संसार की वासनाओं से मुँह मोड़ कर सत्पथ के पथिक बन गये और आत्म-संयम की साधना में लगातार ऐसी तप:ज्योति जगाई कि दृश्य ही बदल गया। तप:साधना के बल पर एकदिन उन्होंने मानव का वैसा दिव्य जीवन प्राप्त किया कि आत्म-साधना के विकास एवं वरदान स्वरूप अरिहन्त, जिन एवं तीर्थङ्कर के रूप में प्रकट हुए। श्रमणसंस्कृति के प्राचीन धर्म-ग्रन्थों में आज भी उनके पतनोत्थान सम्बन्धी अनेक महत्त्वपूर्ण अनुभव एवं धर्म-साधना के क्रमबद्ध चरण-चिह्न मिलते हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि प्रत्येक साधारणजन में जिनत्व के अंकुर हैं,जो उन्हें अपनी साधना के जल-सिंचन से विकसित करके महावृक्ष के रूप में पल्लवित कर सकता है, उसे 'जिनत्व' का अमरफल प्राप्त हो सकता है। राग-द्वेष-विजेता अरिहन्तों के जीवनसम्बन्धी उच्च आदर्श, साधक-जीवन के लिए क्रमबद्ध अभ्युदय एवं निःश्रेयस के रेखा-चित्र उपस्थित करता है। अतएव श्रमण-संस्कृति का उत्तारवाद केवल सुननेभर के लिए नहीं है, अपितु जीवन के हर अंग में गहरा उतारने के लिए है। उत्तारवाद, मानव-जाति को पाप के फल से बचने की नहीं, अपितु मूलतः पाप से ही बचने की प्रेरणा देता है और जीवन के ऊँचे आदर्शों के लिए मनुष्यों के हृदय में अजर, अमर, अनन्त सत्साहस की अखण्ड ज्योति जगा देता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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