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________________ अवतारवाद या उत्तारवाद |९५/ भगवान् ! भला भगवान् के अतिरिक्त और कौन दूसरा यह काम कर सकता है !" इस प्रकार हमारे प्रचीन महापुरुषों के अहिंसा, दया, सत्य, परोपकार आदि जितने भी श्रेष्ठ एवं महान् गुण हैं, उन सबसे अवतारवादी लोग मुँह मोड़ लेते हैं, अपने को साफ बचा लेते हैं। अवतारवादियों के यहाँ जो कुछ भी है, सब प्रभु की लीला है। वह केवल सुनने-भर के लिए है, आचरण करने के लिए नहीं। भला सर्वशक्तिमान ईश्वर के कामों को मनुष्य कहीं अपने आचरण में उतार सकता है ? अवतारों का चरित्रः श्रव्य या कर्त्तव्य ? _कछ प्रसंग तो ऐसे भी आते हैं, जो केवल दोषों को ढंकने का ही प्रयत्न करते हैं। जब कोई विचारक, किसी भी अवतार के रूप में माने जाने वाले व्यक्ति का जीवन चरित्र पढ़ता है, और उसमें कोई नैतिक जीवन की भूल पाता है, तो वह विचारक होने के नाते उचित आलोचना करता है, अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा कहता है। किन्तु अवतारवादी लोग विचारक का यह अधिकार छीन लेते हैं। ऐसे प्रसंगों पर वे प्रायः कहा करते हैं "अरे तुम क्या जानो? यह सब उस महाप्रभु की माया है। वह जो कुछ भी करता है, अच्छा ही करता है। जिसे हम आज बुराई समझते हैं, उसमें भी कोई-न-कोई भलाई ही रही होगी ! हमें श्रद्धा रखनी चाहिए, ईश्वर का अपवाद नहीं करना चाहिए !" इस प्रकार अवतारवादी लोग श्रद्धा की दुहाई देकर स्वतन्त्र चिन्तन एवं गुणदोष के परीक्षण का सिंह-द्वार सहसा बन्द कर देते हैं। श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में जब राजा परीक्षित ने श्रीकृष्ण का गोपियों के साथ उन्मुक्त व्यवहार का वर्णन सुना, तो वह चौंक उठा। भगवान् होकर इस प्रकार अमर्यादित आचरण ! कुछ समझ में नहीं आया ! उस समय श्री शुकदेव जी ने, कैसा अनोखा तर्क उपस्थित किया है ? वह कहते हैं- "राजन ! महापुरुषों के जीवन सुनने के लिए हैं, आचरण करने के लिए नहीं।" कोई भी विचारक इस समाधानपद्धति से सन्तुष्ट नहीं हो सकता। वे महापुरुष हमारे जीवन-निर्माण के लिए उपयोगी कैसे हो सकते हैं, जिनके जीवन-वृत्त केवल सुनने के लिए हों, विधि-निषेध के रूप में अपनाने के लिए नहीं ? क्या जीवन-चरित्रों से फलित होने वाले आदर्शों को अपनाने के लिए अवतारवादी साहित्यकार जनता को कुछ गहरी प्रेरणा देते हैं ? इन सब प्रश्नों का उत्तर यदि ईमानदारी से दिया जाए, तो इस अवतारवाद को विचारपरम्परा में एकमात्र नकार के अतिरिक्त और कुछ भी स्थान नहीं मिल सकता। 'अवतरण' नहीं, 'उत्तरण' : श्रमण-संस्कृति का आदर्श, ईश्वर का अवतार न होकर मनुष्य का उत्तार है। यहाँ ईश्वर का मानव-रूप में अवतरण नहीं माना जाता, प्रत्युत्त मानव का ईश्वर-रूप में उत्तरण माना जाता है। अवतरण का अर्थ है. नीचे की ओर आना और उत्तरण का अर्थ है—ऊपर की ओर जाना। हाँ, तो श्रमण-संस्कृति में मनुष्य से बढ़कर और कोई दूसरा श्रेष्ठ प्राणी नहीं है। मनुष्य केवल हाड़-मांस का चलता-फिरता पिंजर नहीं है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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