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९४ चिंतन की मनोभूमि उसके हाथ की कठपुतली है। पुराणों की भाषा में वह 'कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुम्' के रूप में सर्वतंत्र स्वतंत्र है, विश्व का सर्वाधिकारी सम्राट् है। गीता में कहा गया है "भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया"१। वह सब जगत् को अपनी माया से घुमा रहा है जैसे कुम्हार चाक पर रखे मृत्पिंड को।
__ मनुष्य कितनी ही ऊँची साधना करे, कितना ही सत्य तथा अहिंसा के ऊँचे शिखरों पर विचरण करे, परन्तु वह ईश्वर कभी नहीं बन सकता। मनुष्य के विकास की कुछ सीमा है, और वह सीमा ईश्वर की इच्छा के नीचे है। मनुष्य को चाहिए कि वह उसकी कृपा का भिखारी बन कर रहे, इसीलिए तो श्रमणेतर संस्कृति का ईश्वर कहता है-"मनुष्य ! तू मेरी शरण में आ, मेरा स्मरण कर। तू क्यों डरता है ? मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूँगा, शोक मत कर। हाँ, मुझे अपना स्वामी मान और अपने को मेरा दास!"२ बस इतनी-सी शर्त पूरी करनी होगी, और कुछ नहीं। अवतारवाद या शरणवाद :
कोई भी तटस्थ विचारक इस बात पर विचार कर सकता है कि यह मान्यता मानव-समाज के नैतिक बल को घटाती है, या नहीं? कोई भी समाज इस प्रकार की विचार-परम्परा का प्रचार कर अपने आचरण के स्तर को ऊँचा नहीं कर सकता। यही कारण है कि भारतवर्ष की जनता का नैतिक स्तर बराबर नीचे गिरता जा रहा है। लोग पाप से नहीं बचना चाहते, पाप के फल से बचना चाहते हैं। और पाप के फल से बचने के लिए भी किसी ऊँची कठोर साधना की आवश्यकता नहीं मानते, बल्कि केवल ईश्वर या ईश्वर के अवतार राम, कृष्ण आदि की शरण में पहुँच जाना ही इनकी दृष्टि में सबसे बड़ी साधना है, बस इसी से बेड़ा पार है। जहाँ मात्र अपने मनोरंजन के लिए तोते को रामनाम रटाते हुए वेश्याएँ तर जाती हों और मरते समय मोह-वश अपने पत्र नारायण को पुकारने भर से सर्वनियन्ता नारायण के दूत दौड़े आते हों एवं उस जीवनभर के पापी अजामिल को स्वर्ग में ले पहँचते हों, वहाँ भला जीवन की नैतिकता और सदाचरण की महत्ता का क्या मूल रह जाता है ? सस्ती भक्ति, धर्माचरण के महत्त्व को गिरा देती है और इस प्रकार भक्ति से पल्लवित हुआ अवतारवाद का सिद्धान्त जनता में 'शरणवाद' के रूप में परिवर्तित हो जाता है। पाप करो, और उनके फल से बचने के लिए प्रभु की शरण में चले जाओ।
___ अवतारवाद के आदर्श केवल आदर्शमात्र रह जाते हैं, वे जनता के द्वारा अपनाने योग्य यथार्थता के रूप में कभी नहीं उतर पाते। अतएव जब लोग राम, कृष्ण आदि किसी अवतारी महापुरुष की जीवन-लीला सुनते हैं, तो किसी ऊँचे आदर्श की बात आने पर झटपट कह उठते हैं कि "अहा, क्या कहना है ! अजी भगवान् थे,
१. श्री मद्भगवद्गीता, १८/६१ २. अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।'
---गीता १८/६६
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