SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्यात्मज्ञान-प्रवेशिका (२) जिसके पढ़नेसे उपशम-वैराग्यकी वृद्धि हो। (३) जिसमें मतमतांतरकी चर्चा द्वारा वादविवाद और संप्रदायवादरूपी पक्षपातका पोषण करनेवाला कथन न हो। (४) जिसमें स्पष्टरूपसे वस्तुका स्वरूप प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाणोंसे सिद्ध किया हो । (५) जिसमें पूर्वापर विरोध न हो और एकांतका हठाग्रह न हो। (६) जिसमें शुद्ध आत्मज्ञान और सदाचारका उपदेश हो। (७) विविध कक्षाके साधकोंके दोष बताकर, वे दोष किस प्रकारसे दूर हों इसके उपायोंका जिसमें स्पष्टरूपसे निरूपण करके आत्मशुद्धिके मार्गका प्रकाश किया हो। प्र. ५ : सत्शास्त्रोंका परिचय किस तरह करना ? उ. ५ : शास्त्रोंको पढ़ना और समझना । जहाँ समझमें न आवे वहाँ विशेष ज्ञानीसे पूछना । जो अर्थ समझमें आया हो उसका बारबार स्मरण-चिंतन करना । अधिक उपयोगीबोधको नोंधपोथीमें अवश्य लिखना । शास्त्रका पारायण करना और उसका उपदेश करना । ये सब शास्त्रस्वाध्यायके ही प्रकार हैं । उत्तम स्तुतियोंको - पदोंको भी कंठस्थ करना। प्र. ६ : वैसा परिचय करनेके लिये नियम लेना चाहिए ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001292
Book TitleAdhyatmagyan Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShrimad Rajchandra Sadhna Kendra Koba
Publication Year2005
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Philosophy
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy