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________________ ५६ प्रमेयकमलमार्त्तण्डे प्रमदानां कामातुरतयेह जन्मन्यपि व्यभिचारोपलम्भाच्च कुतो योनिनिबन्धनो ब्राह्मण्यनिश्चयः ? न च विप्लुते तर पित्रऽपत्येषु वैलक्षण्यं लक्ष्यते । न खलु वडवायां गर्दभाश्वप्रभवापत्येष्विव ब्राह्मण्यां ब्राह्मणशूद्रप्रभवापत्येष्वपि वैलक्षण्यं लक्ष्यते । क्रियाविलोपात् शूद्रान्नादेश्च जातिलोपः स्वयमेवाभ्युपगतः - "शूद्रान्नाच्छुद्र सम्पर्काच्छूद्रेण सह भाषणात् । इह जन्मनि शूद्रत्वं मृतः श्वा चाभिजायते ॥ " [ ] इत्यभिधानात् । बात है कि " ब्राह्मण" यह शब्द औपाधिक है उपाधि का द्योतक है, अतः इस उपाधि का कारण बताना होगा । माता पिता की अभ्रान्तता होना ब्राह्मण उपाधि का कारण है अथवा बूझ से उत्पन्न होना कारण है ? माता पिता की प्रविभ्रान्तता तो कारण हो नहीं सकती, क्योंकि माता पिता की परम्परा तो अनादि कालीन है, उसका प्रत्यक्ष द्वारा ग्रहण होना शक्य है, तथा प्राय: करके स्त्रियों के काम जन्य दोष के कारण इस जन्म में भी व्यभिचारपना देखा जाता है तो परम्परा से होने वाला योनि निमित्तक ब्राह्मणपना कैसे निश्चित किया जा सकता है ? तथा यह भी बात नहीं है कि माता पिता के अभ्रांत - निर्दोष होने से और नहीं होने से संतानों में विलक्षणता प्राती हो इसीका खुलासा करते हैं - जिस प्रकार गधी और घोड़े से उत्पन्न हुई संतान स्वरूप खच्चर में विलक्षणता पायी जाती है उस प्रकार ब्राह्मण और शूद्रा से उत्पन्न हुए ब्राह्मणी में विलक्षणता नहीं पायी जाती है । मीमांसक आदि परवादीगण इधर तो ब्राह्मण्य जाति को नित्य एक मानते हैं। और इधर उसका किसी किसी कारण से लोप होना बताते हैं जैसे कि ब्राह्मण योग्य क्रिया, जप, तप होमादि का लोप करने से, शूद्र का भोजन करने से ब्राह्मणत्व नष्ट होता है ऐसा स्वयं स्वीकार करते हैं । कहा भी है कि- शूद्र द्वारा पकाया हुआ भोजन करने से, शूद्र के साथ संपर्क हो जाने से, शूद्र के साथ वार्तालाप करने से ब्राह्मण पुरुषों के इस जन्म में तो शूद्रपना आ जाता है, और मरने के बाद वे श्वान हो जाते हैं ।। १ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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