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________________ ५५ किञ्च, 'ब्राह्मण्यजाते: प्रत्यक्षतासिद्धौ यथोक्तोपदेशस्य प्रत्यक्ष हेतुतासिद्धि:, तत्सिद्धौ च तत्प्रत्यक्षतासिद्धि:' इत्यन्योन्याश्रयः । यथा च ब्राह्मण्यजातेः प्रत्यक्षत्वमुपदेशेन व्यवस्थाप्यते तथा ब्रह्माद्यद्वैत प्रत्यक्षत्वमपि तत्कथमप्रतिपक्षा पक्षसिद्धिर्भवत: स्यात् ? अथाद्वै ताद्युपदेशस्याध्यक्षबाधितत्वान्न प्रत्यक्षाङ्गत्वम्; तदन्यत्रापि समानम् । ब्राह्मण्यविविक्तपिण्डग्राहिणाध्यक्षेणैव हि तदुपदेशो बाध्यते । अथाऽदृश्या ब्राह्मण्यजातिस्तेनायमदोषः; कथं तर्हि सा 'प्रत्यक्षा' इत्युक्तं शोभेत ? ब्राह्मणत्वजातिनिरास: किञ्च, औपाधिकोयं ब्राह्मणशब्द:, तस्य च निमित्त वाच्यम् । तच्च किं पित्रोरविप्लुतत्वम्, ब्रह्मप्रभवत्वं वा ? न तावदविप्लुतत्वम्; श्रनादौ काले तस्याध्यक्षेण ग्रहीतुमशक्यत्वात् प्रायेण या अनुमान ? प्रत्यक्ष तो वह हो नहीं सकता, इस विषय में पहले ही कह चुके हैं कि प्रत्यक्ष का विषय ब्राह्मण्य होना असंभव है । दूसरी बात यह है कि ब्राह्मणत्व जाति का प्रत्यक्षपना सिद्ध होने पर तो पितादि के ब्राह्मण्य के ज्ञान का उपदेश प्रत्यक्ष का हेतु रूप सिद्ध होगा और उसके सिद्ध होने पर ब्राह्मण्य के प्रत्यक्षता की सिद्धि होगी, इस तरह ग्रन्योन्याश्रय दोष आता है । आप जिस प्रकार ब्राह्मण्य जाति का प्रत्यक्षपना उपदेश द्वारा सिद्ध करते हैं उसी प्रकार अन्य अद्वैतवादी आदि भी ब्रह्माद्वैत आदि का उपदेश द्वारा प्रत्यक्षपना सिद्ध कर लेंगे ? फिर आपके पक्ष की निर्द्वन्द्व सिद्धि किस प्रकार हो सकेगी ? अर्थात् नहीं हो सकती है । मीमांसक - तपने का उपदेश प्रत्यक्ष बाधित है, अतः वह प्रत्यक्ष प्रमाण का कारण नहीं हो सकता है ? जैन - तो यही बात ब्राह्मणत्व जाति में भी होती है, ब्राह्मणत्व जाति से पृथक् मात्र मानव व्यक्ति को ग्रहण करने वाले प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा नित्य ब्राह्मण्य का उपदेश बाधित होता ही है । मीमांसक - मनुष्य को ग्रहण करने वाले प्रत्यक्ष द्वारा ब्राह्मण्य का ग्रहण इसलिये नहीं होता है कि वह ब्राह्मण्य प्रदृश्य है, अत: उपदेश बाधित हुआ सा मालूम देता है, इसमें कोई दोष वाली बात नहीं है ? जैन - फिर आप उस ब्राह्मण्य जाति को प्रत्यक्ष होना किस प्रकार कहते हैं ? जब वह अदृश्य ही है तब उसे प्रत्यक्ष कहना शोभा नहीं देता है । तथा यह भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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