SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५७ ब्राह्मणत्वजातिनिरासः कथं चैवं वादिनो ब्रह्मव्यासविश्वामित्रप्रभृतीनां ब्राह्मण्यसिद्धिस्तेषां तज्जन्यत्वासंभवात् । तन्न पित्रोरविप्लुतत्वं तन्निमित्तम् । नापि ब्रह्मप्रभवत्वम् ; सर्वेषां तत्प्रभवत्वेन ब्राह्मणशब्दाभिधेयतानुषङ्गात् । 'तन्मुखाज्जातो ब्राह्मणो नान्यः' इत्यपि भेदो ब्रह्मप्रभवत्वे प्रजानां दुर्लभः । न खल्वेकवृक्षप्रभवं फलं मूले मध्ये शाखायां च भिद्यते । ननु नागवल्लीपत्राणां मूलमध्यादिदेशोत्पत्त : कण्ठभ्रामर्यादिभेदो दृष्ट एवमत्रापि प्रजाभेदः स्यात्; इत्यप्यसत्; यतस्तत्पत्राणां जघन्योत्कृष्टप्रदेशोत्पादात्तत्पत्राणां तभेदो युक्तो ब्रह्मणस्तु तद्देशाभावान्न तभेदः । तद्दे शभावे चास्य जघन्योत्कृष्टतादिप्रसङ्गः स्यात् । मीमांसक आदि माता पिता के निर्दोषता से ब्राह्मण्य की प्रवृत्ति होना मानते हैं किन्तु इस तरह की मान्यता से ब्रह्मा, व्यास ऋषि, विश्वामित्र आदि पुरुषों में ब्राह्मणत्व किस प्रकार सिद्ध होगा ? क्योंकि ये सब पुरुष अविभ्रान्त-निर्दोष माता पिता से उत्पन्न नहीं हुए थे, अतः ब्राह्मण शब्द की प्रवृत्ति का निमित्त पिता आदि की अभ्रान्तता है ऐसा कहना सिद्ध नहीं होता है । भावार्थ-मीमांसक, नैयायिक आदि वादी ब्राह्मण वर्ण वाले पुरुषों में एक नित्य ब्राह्मणत्व नामा जाति को कल्पना करते हैं, उनका कहना है कि "यह ब्राह्मण है, यह ब्राह्मण है" इस तरह के शब्द या पदकी जो प्रवृत्ति है उसका वाच्य नित्य ब्राह्मणत्व जाति है, न कि ब्राह्मण व्यक्ति, ब्राह्मण पुरुष में जो ब्राह्मणपने का ज्ञान होता है वह यज्ञोपवीत, अध्ययन विशेष आदि कारणों से नहीं होता है अपितु अनादि नित्य ब्राह्मण्य जाति से होता है । पुत्र की ब्राह्मणता माता पिता के निर्दोषपने से जानी जाती है, और माता पिता की ब्राह्मणता उनके माता आदि से जानी जाती है इत्यादि, इस पर जैन का चोद्य है कि प्रथम तो अनादि से अभी तक माता आदि की निर्दोषता बराबर उसी एक परम्परा में चली पाना असंभव है, तथा दूसरी बात माता पिता के निर्दोषता एवं निन्तिता से पुरुषों में ब्राह्मण शब्द प्रयुक्त होता है अथवा वह पुरुष ब्राह्मण माना जाता है तो ब्रह्मा की उत्पत्ति विष्णु के नाभिकमल से, व्यास ऋषि की उत्पत्ति शूद्री से होने के कारण उनमें नैयायिकादि को ब्राह्मणत्व नहीं मानना चाहिये । इसलिये नैयायिकादि का अनादि नित्य एक ही ब्राह्मण जाति है ऐसा कहना असत् ठहरता है। इस ब्राह्मणत्व जाति का खण्डन देखकर कोई यह नहीं समझे कि प्राचार्य वर्ण या जाति व्यवस्था को नहीं मान रहे हैं। किन्तु नित्य व्यापी एक स्वभाववाली कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy