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ततोऽपाकृतमेतत्
प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
"सर्वे भावाः स्वभावेन स्वस्वभावव्यवस्थिते: । स्वभावपरभावाभ्यां यस्माद्व्यावृत्तिभागिनः ॥ १ ॥ तस्माद्यतो यतोऽर्थानां व्यावृत्तिस्तन्निबन्धनाः । जातिभेदा: प्रकल्प्यन्ते तद्विशेषावगाहिनः || २ || "
[ प्रमाणवा० १।४१-४२ ] इति ।
ननु सादृश्ये सामान्ये 'स एवायं गौः' इति प्रत्ययः कथं शबलं दृष्ट्वा धवलं पश्यतो घटेतेति चेत् ? 'एकत्वोपचारात्' इति ब्रूमः । द्विविधं ह्येकत्वम् - मुख्यम्, उपचरितं च । मुख्यमात्मादिद्रव्ये । सादृश्ये तूपचरितम् । नित्य सर्वगतस्वभावत्वे सामान्यस्यानेकदोषदुष्टत्व प्रतिपादनात् ।
इस प्रकार संपूर्ण पदार्थों के सामान्य विशेषात्मक सिद्ध हो जाने से बौद्ध का निम्नलिखित कथन खण्डित होता है कि-जगत के सम्पूर्ण पदार्थ ( प्रतिक्षण में नष्ट होने वाले, परस्पर के स्पर्शपने से रहित, परमाणु मात्र स्वरूप गो, घट, पटादि पदार्थ ) स्वभाव से ही अपने अपने स्वभावों में व्यवस्थित हैं, वे पदार्थ स्वभाव और परभाव द्वारा व्यावृत्ति रूप हुआ करते हैं ||१|| इन स्वलक्षणभूत पदार्थों की जिस कारण से परस्पर में व्यावृत्ति या विशेष रूप विभिन्नता देखी जाती है, उसी कारण से उन्हें विशेष धर्म रूप या व्यावृत्ति माना गया है, इन विशेषावगाही पदार्थों में जो जाति भेद अर्थात् सामान्य भेद ( गोत्व, घटत्व पटत्व इत्यादि ) दिखायी देते हैं वे केवल वासनासंस्कार वश ही कल्पित किये जाते हैं ||२|| अभिप्राय यही है कि गो, पट, घट आदि पदार्थ मात्र विशेष रूप हैं, उनमें सामान्य नामा कोई धर्म नहीं है ।
मीमांसक - यदि जैन के अभिमत सदृश परिणाम रूप सामान्य को स्वीकार करते हैं तो शबल गो को देखकर पुनः धवल गो को देखते हुए पुरुष को " यह वही गो है" इस प्रकार का ज्ञान होता है वह कैसे घटित होगा ? ( क्योंकि दोनों एक तो नहीं ) ।
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जैन - यह ज्ञान तो एकत्व का उपचार होने से घटित हो जायगा एकत्व ( एकपना ) दो प्रकार का हुआ करता है, मुख्य एकत्व और उपचरित एकत्व । मुख्य एकत्व तो आत्मा आदि पदार्थों में होता है, और उपचरित एकत्व सादृश्य में होता है । आप • मीमांसक आदि का अभिमत सामान्य सर्वथा नित्य, सर्वगत एक रूप है ऐसा सामान्य
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