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________________ सामान्यस्वरूपविचारः सादृश्यस्यापि भावात् ? परापेक्षत्वात्तस्याप्रसङ्गोऽन्यत्रापि समानः। समानप्रत्ययोपि हि परापेक्षस्तामन्तरेण क्वचित्कदाचिदप्यभावात् द्वित्वादिप्रत्ययवदूरत्वादिप्रत्ययवद्वा । द्विविधो हि वस्तुधर्मः-परापेक्षः, परानपेक्षश्च, स्थौल्यादिवद्वर्णादिवच्च । प्रतो यथान्यापेक्षो विशेषः स्वामर्थक्रियां व्यावृत्तिज्ञानलक्षणां कुर्वन्नर्थक्रियाकारी, तथा सामान्यमप्यनुगतज्ञानलक्षणामर्थक्रियां कुर्वत्कथमर्थक्रियाकारि न स्यात् ? तबाह्यां पुनर्वाहदोहाद्यर्थक्रियां यथा न केवलं सामान्य कर्तुमुत्सहते तथा विशेषोपि, उभयात्मनो वस्तुनो गवादेस्तत्रोपयोगात्, इत्यर्थक्रियाकारित्वेनापि सामान्यविशेषाकारयोरभेदात्सिद्ध वास्तवत्वम् । मीमांसक-गो को देखते समय विशिष्ट प्रतिभास इसलिये नहीं हो पाता है कि वह प्रतिभास अन्य महिष [भैस] अादि की अपेक्षा करके होता है ? जैन- यही बात समान प्रतिभास में है, गो को देखते समय समान प्रतिभास इसलिये नहीं हो पाता है कि वह अन्य गो की अपेक्षा करके होता है, बिलकुल प्रसिद्ध बात है कि समानता का प्रतिभास परकी अपेक्षा लिये बिना कभी किसी स्थान पर भी नहीं होता है, जैसे द्वित्व-दो संख्या का प्रतिभास एक की अपेक्षा लेकर होता है, अथवा दूरपने का प्रतिभास निकटता की अपेक्षा लेकर होता है । वस्तुओं में दो प्रकार के धर्म हुग्रा करते हैं एक पर सापेक्ष और एक परकी अपेक्षा से रहित, उदाहरण के लिये एक गाय है उसमें स्थूलपना आदि तो अन्य गो के छोटापन को अपेक्षा रखता है और सफेद वर्ण आदि परकी अपेक्षा नहीं रखता है। जिस प्रकार अन्य की अपेक्षा रखने वाला विशेष धर्म अपनी अर्थ क्रिया जो यह इससे विभिन्न है इत्यादि व्यावृत्ति रूप ज्ञान को करने से अर्थ क्रियाकारी (उपयोगी) कहलाता है, उसी प्रकार सामान्य धर्म भी अनुगत ज्ञान रूप अर्थ क्रिया को करता हा अर्थ क्रियाकारी कैसे नहीं कहलायेगा ? अनुगत ज्ञान रूप अर्थ क्रिया से अन्य जो वाह दोहन, ( बोझा ढोना, दूध देना ) आदि अर्थ क्रिया है उस अर्थ क्रिया को तो जैसे अकेला सामान्य नहीं कर सकता वैसे विशेष भी नहीं कर सकता, क्योंकि इस प्रकार की अर्थ क्रिया में तो सामान्य और विशेष दोनों रूप जो गो आदि वस्तु हैं वे ही समर्थ हा करती हैं. न कि उनका एक एक धर्म समर्थ होता है, अतः यह सिद्ध होता है कि अर्थ क्रियाकारी होने से सामान्य और विशेषाकारों में अभेद है, और इसलिये दोनों वस्तुभूत धर्म हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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