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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
व्यक्तिस्वरूपादभिन्नत्वात्सामान्यरूपताव्याघातोऽस्य; रूपादेरप्यत एव रूपादिस्वभावताव्याघातप्रसङ्गात् । प्रत्यक्षविरोधोऽन्यत्रापि समान:- सामान्य विशेषात्मतयार्थस्याध्यक्षे प्रतिभासनात् ।
ननु प्रथमव्यक्तिदर्शनवेलायां सामान्यप्रत्ययस्याभावात्सदृश परिणामलक्षणस्यापि सामान्यस्यासम्भव:; तदप्यसाम्प्रतम् ; तदा सद्द्रव्यत्वादिप्रत्ययस्योपलम्भात् । प्रथममेकां गां पश्यन्नपि हि सदादिना सादृश्यं तत्रार्थान्तरेण व्यपदिशत्येव । अननुभूतव्यक्त्यन्तरस्यैकव्यक्तिदर्शने कस्मान्न समानप्रत्ययोत्पत्तिः तत्र सदृशपरिणामस्य भावादिति चेत् ? तवापि विशिष्टप्रत्ययोत्पत्तिः कस्मान्न स्याद्व
यह कोई बात नहीं है । सामान्य व्यक्ति स्वरूप है ऐसा मानने में बाधा होगी तो रूप आदि धर्म में भी रूपादि स्वभावत्व सिद्ध नहीं हो सकेंगे; उसमें भी बाधा होगी, क्योंकि रूपादिक भी सामान्य के समान व्यक्ति स्वरूप से प्रभिन्न है । यदि कहा जाय कि रूप आदि को रूपादि स्वभाव वाले नहीं मानेंगे तो प्रत्यक्ष बाधा आती है ? तो सामान्य को भी व्यक्ति स्वरूप से भिन्न मानते हैं तो प्रत्यक्ष बाधा आती है, क्योंकि जगत के सम्पूर्ण पदार्थ सामान्य विशेषात्मक ही प्रत्यक्ष प्रमाण में प्रतिभासित होते हैं ।
शंका- सबसे प्रथम बार जब किसी गो को देखते हैं उस समय " यह गो है, यह गो है" इस प्रकार अनुगत प्रत्यय नहीं होता है अतः सदृश परिणाम लक्षण वाला जैन का सामान्य भी असम्भव है ?
समाधान—यह शंका असार है प्रथम बार गो को देखते हैं उस समय "सत् है सत् है, द्रव्य है, द्रव्य है” इत्यादि सामान्य प्रत्यय तो होता ही रहता है । जब कोई पुरुष प्रथम बार एक गो को देख रहा है तब यह पशु अन्य पदार्थ के समान ही अस्तिरूप है इत्यादि रूप से कथन करता ही है ।
शंका - जिस पुरुष ने अन्य गो व्यक्तियों को देखा नहीं है वह जब एक गो को देखता है तब उसको यह इसके समान है, अथवा गो है, गो है, इस प्रकार का समान ज्ञान क्यों नहीं होता है ? सदृश परिणाम तो उस गो में मौजूद ही है ?
समाधान - यह शंका उन्हीं मीमांसकों के ऊपर प्रतिशंका का कारण होगी, देखिये- गो व्यक्ति में विसदृश - विशेष परिणाम उस गो व्यक्ति से अभिन्न है ऐसा आप मानते हैं सो जब कोई प्रथम बार गो को देख रहा है तब उसको "यह गो उससे विशिष्ट है विभिन्न स्वरूप वाली है" ऐसा विशिष्ट ज्ञान क्यों नहीं होता है विशिष्ट परिणाम उस गो में मौजूद ही है ?
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