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________________ सामान्यस्वरूपविचारः शक्तावुपयुज्यते शक्तिश्च कार्ये। नन्वसौ शक्तावुपयुज्यते स्वरूपेण, शक्त्यन्तरेण वा ? शक्त्यन्तरेणोपयोगेऽवस्था। स्वरूपेणोपयोगे कार्येप्यसौ तथा किन्नोपयुज्यते कि परम्परापरिश्रमेण ? न चान्यनिमित्तमस्ति । पाचकत्वमस्तीति चेत् ; तत्कि द्रव्योत्पत्तिकाले व्यक्तम्, अव्यक्त वा ? व्यक्त चेत् ; तर्हि पाकक्रियायाः प्रागेव तथा ज्ञानाभिधाने स्याताम् । अथाऽव्यक्तम् ; तहि पश्चादपि न ते स्यातां विशेषा यदि शक्ति पाचक से अन्य है तो वह शक्ति हो पचन कार्य को करने में उपयोगी हुई । इस तरह तो पाचक पुरुष पचन क्रिया का कर्ता नहीं रहा अकर्ता बन गया । शंका- परम्परा से पाचक कर्त्ता बन जायगा, कर्ता जो पाचक पुरुष है वह शक्ति से संयुक्त हुआ करता है और शक्ति पचनादि कार्य को करती है । समाधान- ठीक है, किन्तु यह बताइये कि पाचक कर्ता शक्ति में उपयुक्त होता है अर्थात् शक्ति से युक्त होता है वह स्वरूप से ही होता है अथवा अन्य शक्ति द्वारा शक्ति युक्त होता है ? अन्य शक्ति द्वारा होगा तो अनवस्था बन जायगी। स्वरूप से ही शक्ति संयुक्त होता है ऐसा कहो तो जैसे स्वरूप से शक्ति संयुक्त हुआ वैसे पचनरूप कार्य में भी स्वरूप से ही क्यों नहीं उपयुक्त-प्रयुक्त होगा ? व्यर्थ परम्परा के परिश्रम से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् पाचक में शक्ति संयुक्त होना और पुनः उससे पचनादि कार्य होना इत्यादि परम्परा से कार्य का निमित्त मानना व्यर्थ है। इन कर्म, कर्म सामान्यादि को छोड़कर अन्य कोई निमित्त नहीं है कि जिससे अनुगत ज्ञान हो जाय । ___शंका-पाचकादि में "पाचक है" ऐसा अनुगत ज्ञान कराने में तो पाचकत्व हेतु है ? समाधान-तो फिर बताइये कि पाचक पुरुष के उत्पन्न होने के समय वह पाचकत्व व्यक्त रहता है अथवा अव्यक्त रहता है ? व्यक्त कहो तो पाक क्रिया ( पकाने की क्रिया ) के पहले ही उस पुरुष में "पाचक है" ऐसा अनुगत ज्ञान तथा नाम होने लगेगा। ( किन्तु ऐसा होता नहीं ) पाचक पुरुष के उत्पत्ति काल में पाक क्रिया अव्यक्त रहती है ऐसा दूसरा पक्ष कहो तो उत्पत्तिकाल के अनन्तर भी अनगत ज्ञान और नाम नहीं हो सकेंगे, क्योंकि उस नित्य पाचकत्व में भेद होना या स्वभाव परिवर्तन होना रूप कोई भी विशेषता पा नहीं सकती। आगे इसी को कहते हैं-पाचकत्व रूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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