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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे भावात् । तथाहि-तत्पूर्व द्रव्यसमवायधर्मः स्याद्वा, न वा? सत्त्वे सत्त्ववत्पूर्वमेव व्यक्तिः, तथाव्यपदेशश्च स्यात् । अथ न; तदा पश्चादपि द्रव्यसमवायधर्मत्वं न स्यादेकरूपत्वात्तस्य । तन्न पश्चाद्व्यक्तिस्तस्य । अस्तु वा; तथाप्यसौ द्रव्येण, क्रियया, उभाभ्यां वाभिधीयते ? न तावद्रव्येण; अस्य प्रागपि विद्यमानत्वात् । नापि क्रियया; तस्या अनाधेयातिशयेऽकिञ्चित्करत्वात् । नाप्युभाभ्याम् ; पृथगऽसामर्थ्य सहितयोरप्यसामर्थ्यात् । तन्नानुगतः प्रत्ययोऽनुगाम्येकं सामान्यमालम्बते । किञ्च, 'गोत्वं वर्तते' इत्यभ्युपेतं भवता, तत्र कि गोष्वेव गोत्वं वर्तते, किं वा गोषु गोत्वमेव, गोषु गोत्वं वर्तते एवेति वा ? प्रथमपक्षेऽनन्वयित्वाविशेषाद्यावत्तेषु गोत्व वर्तते तावदन्य द्रव्य समवाय धर्म पाचक पुरुष के उत्पत्ति के पूर्व सत्त्व रूप है या नहीं ? यदि सत्त्व रूप है तो जैसे देवदत्त रूप द्रव्य के मौजूदगी में उस पाचकत्वकी व्यक्ति रहती है वैसे पहले ही रहेगी, फिर तो "यह पाचक है, यह पाचक है" इत्यादि नाम एवं ज्ञान पहले से होता रहेगा ? यदि उक्त पाचकत्व धर्म पूर्व में सत्त्व रूप नहीं है तो पीछे देवदत्त रूप द्रव्य के उत्पन्न होने पर भी सत्त्वरूप नहीं रहेगा, क्योंकि वह तो सदा एक रूप होता है, अतः पाचकत्व पीछे व्यक्त होता है, ऐसा कहना सिद्ध नहीं होता है । परवादी के आग्रह से मान लेवे कि देवदत्तादि के उत्पन्न होने पर पीछे पाचकत्व की अभिव्यक्ति होती है, किन्तु फिर भी उस पाचकत्व को किस नाम से कहेंगे, द्रव्य से, क्रिया से या दोनों से ? द्रव्य से तो कह नहीं सकते क्योंकि यह तो द्रव्य के पहले भी विद्यमान था । पचनादि क्रिया के नाम से कहना भी नहीं बनता है, क्योंकि पाचकत्व सामान्य रूप क्रिया अनाधेय अतिशय होने से अकिंचित्कर है। द्रव्य और क्रिया दोनों से पाचकत्व को कहते हैं ऐसा तीसरा पक्ष भी जमता नहीं, जब द्रव्य से पाचकत्व कहने में नहीं पाया तथा क्रिया से भी कहने में नहीं आया तो दोनों से भी कहने में नहीं आ सकता है, क्योंकि जिसमें पृथक् अवस्था में सामर्थ्य नहीं है उसमें संयोग-दोनों के मिलने पर भी सामर्थ्य आ नहीं सकता, इस प्रकार यह निश्चित हो जाता है कि अनुवृत्त प्रत्यय अनुगामी एक सामान्य के अवलंबन से नहीं होता है। दूसरी बात यह है कि गोत्व रहता है ऐसा आप मानते हैं सो गो व्यक्तियों में ही ( गाय बैल ) गोत्व रहता है ऐसा अर्थ आपको इष्ट है, अथवा गो व्यक्तियों में गोपना ही रहता है, या कि गो में गोत्व रहता ही है, ऐसा अर्थ करना इष्ट है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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