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________________ सामान्यस्वरूपविचार: नापि कर्मसामान्यम्; तद्धि कर्माश्रितम्, कर्माश्रयाश्रितं वा ? यदि कर्माश्रितम् ; कथमन्यत्र ज्ञानं जनयेत् ? न ह्यन्यत्र वृत्तिमदन्यत्र ज्ञानकारणमतिप्रसङ्गात् । किञ्च, कर्मसामान्यात् 'पाकः पाकः' इति प्रत्यय: स्यान्न पुन: 'पाचकः पाचक:' इति । अथ कर्माश्रयाश्रितम् ; तन्न; कर्माश्रितत्वात् । परम्परया कर्माश्रयाश्रितं तत्; इत्यसारम्; अपचत: कर्मविवेकात् । विविक्ते च कर्मणि न कर्मत्वं कर्मरिण तदाश्रये वाऽऽश्रितम्, अनाश्रितं च कथं तत्तत्र तथाज्ञानहेतु। स्यात् ? ३७ 1 है ऐसा कहो तो वह सदा ठहरने वाली नहीं रही, फिर जब वह क्रिया नहीं होगी तब उस पाचकादि पुरुषों में "यह पाचक है" इस प्रकार का व्यपदेश अथवा अनुगत ज्ञान नहीं हो सकेगा ? क्योंकि जो पका नहीं रहा है उसमें क्रिया का अभाव है । जब पकाता है तभी "पाचक है” ऐसी संज्ञा होती है अन्य समय में नहीं, अतः सिद्ध हुआ कि पचनादि क्रिया पाचक है, पाचक है इत्यादि अनुगत ज्ञान का निमित्त नहीं है । कर्म सामान्य अर्थात् क्रिया मात्र ही पाचक है इत्यादि रूप अनुगत ज्ञान का निमित्त है ऐसा द्वितीय पक्ष भी ठीक नहीं है, यह सामान्य कर्म कर्म के आश्रित है, अथवा कर्म जिसमें हो रहा है उस पुरुष के प्राश्रित है ? यदि कर्म के आश्रित है तो कर्म के प्राश्रयभूत जो पुरुष है उसमें अनुगत ज्ञान को कैसे पैदा करा देगा ? अन्य जगह रहने वाला पदार्थ अन्य जगह ज्ञान का कारण नहीं हुआ करता, यदि मानो तो अतिप्रसंग होगा फिर तो ऐसा भी कह सकते हैं कि घर में रहने वाला दीपक गुफा में ज्ञान का कारण है । तथा यह भी बात है कि कर्म सामान्य ( पचनादि क्रिया ) से तो यह पाक है, पाक है ( भोजन पकता है ) इत्यादि रूप अनुगत ज्ञान होगा न कि यह पाचक है, पाचक है इत्यादि रूप । क्रिया के आश्रयभूत पुरुष में कर्म सामान्य प्राश्रित रहता है ऐसी दूसरी बात भी गलत है कर्म सामान्य तो कर्म के हो प्रश्रित रहता है | शंका - कर्म सामान्य तो कर्म में रहता है और कर्म पुरुष के प्राश्रित रहता है ऐसा परम्परा आश्रय माना है ? Jain Education International समाधान - यह कथन प्रसार है, जो पुरुष पकाने का काम नहीं कर रहा है उससे पचन कर्म पृथक् हो जाता है, जब वह कर्म समाप्त या पृथक् होता है तब वह कर्म सामान्य कर्म या कर्म के आश्रयभूत पुरुष में प्राश्रित नहीं रहता है, इस प्रकार अनाश्रित वह कर्मत्व सामान्य देवदत्तादि पुरुष में " यह पाचक है" इत्यादि ज्ञानका हेतु कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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