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प्रमेयकमलमार्तण्डे अथ यत्र सामान्यं तत्रैवानुगतज्ञानकल्पना; न ; पाचकादिषु तदभावेप्यनुगतप्रत्ययप्रवृत्तेः । न खलु तत्रानुगाम्येकं सामान्यमस्ति यत्प्रसादात्तत्प्रवृत्तिः स्यात् । निमित्तान्तरमस्तीति चेत्तत्कि कर्म, कर्म सामान्यं वा स्यात्, व्यक्तिः, शक्तिर्वा ? न तावत्कर्म ; तस्य प्रतिव्यक्ति विभिन्नत्वात् । विभिन्न ह्यऽभिन्नस्य कारणं न भवति' इति सर्वोयमारम्भः। तच्चेद्भिन्नमपि तथाभूतकार्यकारणं तदान्यत्र कः प्रद्वषः ?
किञ्च, तस्कर्म नित्यं वा स्यात्, अनित्यं वा? न तावन्नित्यम् ; तथानुपलब्धेरनभ्युपगमाच्च। प्रनित्यं तु न सर्वदा स्थितिमदिति विनष्टे तस्मिन्न तथाभूतो व्यपदेशो ज्ञानं वा स्यात्, अपचत : क्रियाविरहात् । पचन्नेव हि तथा व्यपदिश्येत नान्यदा । तन्न कमैतस्य प्रत्ययस्य निबन्धनम् ।
इस प्रकार जहां पर अनुगताकार ज्ञान होता है वहां पर सामान्य रहता है ऐसे प्रथम पक्ष का निरसन किया, अब द्वितीय पक्ष-जहां पर सामान्य होता है वहां पर अनुगताकार ज्ञान होता है, ऐसा माना जाय तो वह भी गलत है, पाचक [ रसोइया । याजक प्रादि पुरुषों में सामान्य नहीं है तो भी “यह पाचक है, यह पाचक है" इत्यादि रूप अनुगत प्रत्यय होता ही है । उन पाचकादि में अनुगामी, एक सामान्य दिखायी तो नहीं देता, जिसके प्रसाद से अनुगताकार ज्ञान प्रवृत्त होवे । तुम कहो कि पाचकादि में अनुगतप्रत्यय होने के लिये अन्य निमित्त मौजूद है, सो वह निमित्त कौनसा होगा, कर्म, कर्म सामान्य, शक्ति अथवा व्यक्ति ? कर्म अर्थात् पचनादि क्रिया उसके निमित्त से पाचकादि में अनुगत ज्ञान होता है ऐसा कहना जमता नहीं, क्योंकि पचनादि क्रिया तो प्रत्येक चैत्र, मैत्र आदि पुरुषों में भिन्न भिन्न ही देखी जाती है। जो भिन्न भिन्न रूप होता है वह अभिन्न का कारण नहीं हुअा करता, यह सर्व जन सामान्य नियम है। यदि प्रति व्यक्ति की क्रिया विभिन्न होकर भी संपूर्ण व्यक्तियों में अभिन्न रूप अनुगत ज्ञान करा देती हैं तो फिर जैन मत में स्वीकृत प्रति व्यक्ति में भिन्न ऐसे सदृश परिणाम द्वारा भी अनुगत ज्ञान होना सहज संभव है, उसको मानने में आपको द्वेष क्यों हो रहा है ?
दूसरी बात यह है कि वह पाचकादि का पचनादि रूप कर्म नित्य है या अनित्य है ? नित्य तो कह नहीं सकते, क्योंकि पाचकादि पुरुष पचनादि क्रिया को [ रसोइया रसोई रूप कार्य को ] सतत करता हुआ उपलब्ध नहीं होता है, तथा आपने ऐसा माना भी नहीं है। आपके सिद्धान्त में तो शब्द, बुद्धि और कर्म अर्थात क्रिया इन तीनों को मात्र तीन क्षण तक अवस्थित माना है । पचनादि क्रिया अनित्य
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