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________________ सामान्यस्वरूपविचारः "ननु च प्रागभावादी सामान्य वस्तु नेष्यते । सत्त व ह्यत्र सामान्यमनुत्पत्त्यादिरूपता" ॥१॥ . [ मी० श्लो० अपोहवाद श्लो० ११ ] अनुत्पत्त्यादिविशिष्टेत्यर्थः । तदयुक्तम् ; अभिप्रेतपदार्थव्यतिरिक्तानां मतान्तरीयार्थानाम् उत्पाद्यकथार्थानां वाऽभावप्रतीतिविषयतोपलम्भेन सत्त्वप्रसङ्गात् । तन्नाभावेष्वनुवृत्तप्रतीतेरनुगाम्येकसामान्यनिबन्धनत्वमस्तीत्यन्यत्राप्यस्यास्तन्निबन्धनत्वाभावः । प्रयोग:-ये ऋमित्वानुगामित्ववस्तुत्वोत्पत्तिमत्त्वसत्त्वादिधर्मोपेतास्तेप्रत्ययाः परकल्पितनित्यैकसर्वगतसामान्यनिबन्धना न भवन्ति यथाऽभावेष्वभावोऽभाव इति प्रत्ययाः, सामान्येषु सामान्य सामान्यमिति प्रत्यया वा, तथा चामी प्रत्यया इति । प्रत्यय होता है ।।१।। इस प्रकार प्रभावों में अनुगत ज्ञान का निमित्त भी हमारे यहां प्रतिपादित किया ही है ? समाधान- यह कथन अयुक्त है। आपके अभिमत जो द्रव्य, गुण आदि पदार्थ हैं उनको छोड़कर अन्य मत में माने गये अद्वैतादि रूप पदार्थ एवं लोक व्यवहार में विचित्र कथाओं में व्यावणित जो पदार्थ हैं वे सब आपको अभाव ज्ञान के विषय रूप से उपलब्ध होते ही हैं अतः इन सब पदर्थों की सत्ता स्वीकार करनी होगी? क्योंकि आपने अभी अभी कहा है कि प्रागभाव आदि प्रभावों में सत्ता नामा महा सामान्य रहता है इसलिये आपको अभावों में अनुगतप्रत्यय अनुगामी एक सामान्य के निमित्त से होता है ऐसा नहीं कहना चाहिए। और जब अभावों में अनुगत प्रत्यय नित्य एक रूप सामान्य के निमित्त से सिद्ध नहीं होता तो अन्य गो, घट, पट इत्यादि व्यक्तियों में भी नित्य, एक, सर्वगत सामान्य के निमित्त से अनुगतप्रत्यय होना सिद्ध नहीं हो पाता है। अनुमान से इसी बात को सिद्ध करते हैं- जो प्रत्यय ( ज्ञान ) ऋमिकपना, अनुगामीपना, वस्तुपना, उत्पत्तिमानपना, सत्वपना इत्यादि धर्मों से युक्त होते हैं वे प्रत्यय नैयायिकादि परवादी द्वारा परिकल्पित नित्य, एक, सर्वगत सामान्य के निमित्त से नहीं हुआ करते हैं, जैसे प्रागभाव आदि अभावों में "अभाव है यह प्रभाव है" इस प्रकार के प्रत्यय सर्वगत भूत सामान्य से नहीं होते, अथवा गोत्व, घटत्व आदि सामान्यों में यह सामान्य है, यह सामान्य है इस प्रकार के ज्ञान होते हैं वे नित्य, एक सर्वगत सामान्य निमित्तक नहीं होते हैं उसी प्रकार ऋमिकत्व आदि रूप प्रत्यय भी सामान्य निमित्तक नहीं हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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