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________________ ३४ प्रमेयकमलमार्तण्डे सामान्येष 'सामान्यं सामान्यम्' इत्यनुगताकारप्रत्ययोपलम्भेनाऽपरसामान्यकल्पनाप्रसङ्गात् । न चात्रासौ प्रत्ययो गौण :, अस्खलवृत्तित्वेन गौणत्वासिद्धः । तथा प्रागभावादिष्वप्यभावेषु 'प्रभावोऽभावः' इत्यनुगतप्रत्ययप्रवृत्तिरस्ति, न च परैरभावसामान्यमभ्युपगतम् । न खलु तत्रानुगाम्येकं निमित्तमस्त्यन्यत्र सदृशपरिणामात् ।। ननु चापरसामान्यस्य प्रागभावादिष्वभावेपि सत्ताख्यं महासामान्यमस्ति, तबलादेवाभावप्रत्ययोऽनुगतो भविष्यति । उक्तञ्च अनुगताकार ज्ञानों के उपलब्ध होने मात्र से ही नित्य सर्वगत सामान्य की सिद्धि होती हो सो भी बात नहीं है, नैयायिकादि से जैन का प्रश्न है कि आप लोग जहां पर अनुगत ज्ञान होता है वहां पर सामान्य का संभव बतलाते हैं अथवा जहां पर सामान्य है वहां पर अनुगत ज्ञान होना बतलाते हैं ? प्रथम पक्ष प्रयुक्त है, यदि जहां पर ही अनुगत ज्ञान हो वही सामान्य है ऐसा नियम बनाते हैं तो गौत्व सामान्य, पटत्व सामान्य, घटत्व सामान्य इत्यादि अनेक सामान्यों में जो यह सामान्य है, यह सामान्य है, इस प्रकार का अनुगताकार ज्ञान होता है, वह किस सामान्य के निमित्त से होगा ? उसके लिये अन्य सामान्य की कल्पना करनी पड़ेगी ? घटत्व, पटत्व, गोत्व आदि में जो अनुगत प्रत्यय होता है उसे गौण या कल्पित भी नहीं कह सकते हैं, क्योंकि यह प्रत्यय भी गो व्यक्तियों में गोत्व के समान अस्खलत्-निर्दोष रूप से अनुभव में प्राता है, और भी स्थानों पर अनुगत प्रत्यय उपलब्ध होता है, देखिये ! यह अभाव है, यह अभाव है, इस प्रकार प्रागभाव, प्रध्वंसाभावादि अभावों में भी अनुगतप्रत्यय होता ही है, नैयायिकादि ने अभाव सामान्य तो कोई माना ही नहीं है, जिससे प्रभावों में प्रभावत्व का अनुगत ज्ञान हो जाय। उन प्रागभाव आदि में सदृश परिणाम को छोड़कर नित्य, एक अनुगामी ऐसा कोई निमित्त तो दिखायी नहीं देता है। ___ शंका-प्रागभाव अादि अभावों में यद्यपि अपर सामान्य तो नहीं है, किन्तु सत्ता नामा महासामान्य है उसके निमित्त से ही इन अभावों में अनुगतप्रत्यय हो जायगा, कहा भी है कि- जैनादिवादी यदि प्रश्न करें कि गो आदि व्यक्तियों में अनुगतप्रत्यय सामान्य निमित्त से होता है तो प्रागभावादि में किस निमित्त से होगा ? क्योंकि उनमें सामान्य नहीं है सो उसका समाधान यही है कि अभावों में अनुत्पत्ति, एक, नित्य इत्यादि सामान्य के समान धर्म वाली जो सत्ता है उसके निमित्त से अनुगत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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