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________________ सामान्यस्वरूपविचार: ३३ व्यपदेशविषयत्वात् यथा चैत्रस्याश्वश्चैत्राद्वयपदिश्यमान: " [ न्यायवा० पृ० ३३३ ] इति; तन्निरस्तम् ; प्रवृत्तिप्रत्ययस्य हि सामान्येन पिण्डादिव्यत्तिरिक्तनिमित्तमात्रसाधने सिद्धसाध्यतानुषङ्गात्, सदृशपरिणाम निबन्धन तयाऽस्याभ्युपगमात् । नित्यै कानुगामिसामान्यनिबन्धनत्वसाधने दृष्टान्तस्य साध्यविकलता । न ह्यवम्भूतेन क्वचिदन्वयः सिद्धः । न चानुगतज्ञानोपलम्भादेव तथाभूतसामान्यसिद्धिः । यतः किं यत्रानुगतज्ञानं तत्र सामान्यसम्भवः प्रतिपाद्यते, यत्र वा सामान्यसम्भवस्तत्रानुगतज्ञानमिति ? तत्राद्य: पक्षोऽयुक्तः; गोत्वादि निमित्त से होता है (अर्थात् सामान्य के निमित्त से होता है) क्योंकि वह विशेषक हैभेद रूप है, जैसे नील, पीत आदि प्रत्यय भेद रूप है । इसी प्रकार सामान्य को विशेषों से भिन्न तथा नित्य सर्वगत सिद्ध करने के लिये उद्योतकर ग्रन्थकार द्वितीय अनुमान उपस्थित करते हैं कि गोत्व ( गोपनासास्नादिपना ) गो व्यक्तियों से भिन्न हुआ करता है, क्योंकि भिन्न प्रतीति का विषय है, जैसे नील, पीत इत्यादि रूप भिन्न प्रतिभास के विषय हैं, तथा गो व्यक्ति का यह गोपना है इत्यादि सम्बन्ध रूप व्यपदेश गो व्यक्ति और गोत्व में पाया जाता है इस कारण से भी गोत्व सामान्य व्यक्तियों से पृथक् एकत्व सर्वगत सिद्ध होता है, “चैत्र नामा पुरुष का यह अश्व है" इत्यादि वाक्य में जिस प्रकार भिन्न व्यपदेश हुआ करता है । सो यह उद्योतकर का मंतव्य भी निराकृत हो जाता है, ये नैयायिकादि परवादी यदि गो व्यक्तियों के अतिरिक्त निमित्त मात्र से अनुवृत्तप्रत्यय होना स्वीकार करते हैं तो हम जैन के लिये सिद्धसाध्यता है, क्योंकि हम भी सदृश परिणाम रूप निमित्त से गोत्व आदि अनुवृत्तप्रत्यय होता है ऐसा मानते हैं । यदि ये परवादी नित्य, एक, सर्वगत सामान्य रूप निमित्त से अनुवृत्तप्रत्यय होना स्वीकार करते हैं तब तो प्रयुक्त है, क्योंकि इस तरह की स्वीकृति में दृष्टांत साध्य विकल ठहरता है, इसीका खुलासा करते हैं—गो व्यक्तियों में गोत्व रूप अनुवृत्त प्रत्यय गो से पृथक् जो नित्य एक सामान्य है उसके निमित्त से होता है, जैसे नीलादि प्रत्यय विभिन्न निमित्त से हुआ करते हैं, सो इतमें ऐस । अन्वय अविनाभाव नहीं है कि जो जो विभिन्न प्रत्यय हो वह वह नित्य, एक, अनुगामी रूप सामान्य के निमित्त से ही हो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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