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उपसंहारः
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गम्भीरं निखिलार्थगोचरमलं शिष्यप्रबोधप्रदम्, यद्वयक्तं पदमद्वितीयमखिलं माणिक्यनन्दिप्रभोः। तयाख्यातमदो यथावगमतः किञ्चिन्मया लेशतः, स्थेयाच्छुद्धधियां मनोरतिगृहे चन्द्रार्कतारावधि ।। १ ।। मोहध्वान्तविनाशनो निखिलतो विज्ञानशुद्धिप्रदा, मेयानन्तनभोविसर्पणपटुर्वस्तूक्तिभाभासुरः । शिष्याब्जप्रतिबोधन! समुदितो योऽद्रेः परीक्षामुखात्, जीयात्सोत्र निबन्ध एष सुचिरं मातण्डतुल्योऽमलः ।। २ ।। गुरुः श्रीनन्दिमाणिक्यो नन्दिताशेषसज्जनः । नन्दतादुरितकान्तरजाजनमतार्णवः ।। ३ ।। श्रीपद्मनन्दिसैद्धान्तशिष्योऽनेकगुणालयः । प्रभाचन्द्रश्चिरं जीयाद्रत्ननन्दिपदे रतः ।। ४ ।।
अब प्रमेयकमलमार्तण्ड ग्रन्थ के कर्ता श्रीप्रभाचन्द्राचार्य अंतिम प्रशस्ति वाक्य कहते हैं। श्लोकार्थ-श्रीमाणिक्यनन्दी प्राचार्य ने जो अद्वितीय पद रूप शास्त्र रचा, कैसा है वह ? गंभीर अर्थवाला, सम्पूर्ण पदार्थों का प्रतिपादक, शिष्यों को प्रबोध देने में समर्थ, एवं सुस्पष्ट है, उसका व्याख्यान मैंने अपने अल्प बुद्धि के अनुसार किञ्चित् किया है, यह व्याख्यान ग्रन्थ विशुद्ध बुद्धि वाले महापुरुषों के मनोगृह में जब तक सूर्य चन्द्र है तब तक स्थिर रहे ।।१।। इसप्रकार माणिक्यनन्दी प्राचार्य के सूत्र ग्रन्थ के प्रशंसारूप अर्थ को कहकर प्रभाचन्द्राचार्य अपने टीका ग्रन्थ प्रमेयकमलमार्तण्ड की तुलना लोक प्रसिद्ध मार्तण्ड से [सूर्य से] करते हैं-जो पूर्णरूप से मोहरूप अंधकार का नाश करने वाला है, विज्ञान की शुद्धि को देने वाला है, प्रमेय [ ज्ञेय पदार्थ ] रूप अनंत आकाश में फैलने में चतुर है, वस्तु के कथनरूप कांति प्रताप से भासुर है, शिष्यरूपी कमलों को विकसित करने वाला है, परीक्षा मुखरूपी उदयाचल से उदित हुप्रा है, अमल है, ऐसा यह मार्तण्ड के तुल्य प्रमेयकमलमार्तण्ड निबंध चिरकाल तक इस वसुन्धरा पर जयवंत रहे ।।२।। प्रसन्न कर दिया है अशेष सज्जनों को जिन्होंने एवं मिथ्या एकान्तरूप रजको नष्ट करने के लिये जैनमत के सागर स्वरूप है ऐसे गुरुदेव श्री माणिक्यनन्दी प्राचार्य वृद्धि को प्राप्त होवे ॥३॥ श्री पद्मनन्दी सैद्धान्तिके शिष्य, अनेक गुणों के मन्दिर, माणिक्यनन्दी आचार्य के चरणकमल में आसक्त ऐसे
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