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प्रमेय कमलमार्तण्डे विशिष्ट प्रज्ञासद्भावस्तु विशिष्टशास्त्रलक्षणकार्योपलम्भादेवास्याऽवसीयते । न खलु विशिष्टं कार्यमविशिष्टादेव कारणात् प्रादुर्भावमहत्यतिप्रसङ्गात् । मादृशोऽबाल इत्यत्र नज, वा द्रष्टव्यः । तेनायमर्थ:यो मत्सदृशोऽबालोऽनल्पप्रज्ञस्तस्य हेयोपादेयतत्त्वसंविदे शास्त्रमिदमहं विहितवान् । यथा परीक्षादक्षः परीक्षादक्षार्थं विशष्टशास्त्रं विदधातीति । ननु चानल्पप्रज्ञस्य तत्संवित्तेर्भवत इव स्वत: सम्भवात्तं प्रति शास्त्रविधानं व्यर्थमेव; इत्यप्य सुन्दरम् ; तद्ग्रहणेऽनल्पप्रज्ञासद्भावस्य विशिष्य विवक्षितत्वात् । यथा
हं तत्करणेऽनल्पप्रज्ञस्तज्ज्ञस्तथा तद्ग्रहणे योऽनल्पप्रज्ञस्तं प्रतीदं शास्त्रं विहितम् । यस्तु शास्त्रान्तरद्वारेणावगतहेयोपादेयस्वरूपो न तं प्रतीत्यर्थ इति ।
इति श्रीप्रभाचन्द्रविरचिते प्रमेयकमलमार्तण्डे परीक्षामुखालङ्कारे
षष्ठः परिच्छेदः समाप्तः ।। छ ।।
विशिष्ट शास्त्र रचनारूप कार्य के करने से ही ग्रन्थकार का प्राज्ञपना निश्चित होता है। विशिष्ट कार्य अविशिष्टकारण से तो हो नहीं सकता अन्यथा अतिप्रसंग होगा। अथवा श्लोक में जो "मादृशो बालः" पद है उनमें मादृशोऽबाल: ऐसा नञ् समासान्त पद मानकर इसतरह अर्थ कर सकते हैं कि जो मेरे समान अबाल-महान् बुद्धिशाली है उसके हेयोपादेयतत्त्व ज्ञानार्थ इस शास्त्र को मैंने रचा है। जैसे परीक्षादक्ष पुरुष परीक्षा में दक्ष कराने के लिये विशिष्ट शास्त्र रचते हैं ।
शंका-महाप्राज्ञ पुरुष तो आपके समान स्वतः ही उक्त तत्त्वज्ञानयुक्त होते हैं अतः उनके लिये शास्त्र रचना व्यर्थ ही है ?
समाधान - ऐसा नहीं कहना, इस शास्त्र के ग्रहण [ वाचन आदि ] में महाप्रज्ञा का सद्भाव विवक्षित है, अर्थात् जैसे मैं शास्त्र करने में प्राज्ञ हूँ और हेयोपादेयतत्त्व का ज्ञाता हूँ वैसे इन तत्त्वों के ग्रहण में अथवा इस ग्रन्थ के वाचनादि में जो प्राज्ञ पुरुष है उनके प्रति यह शास्त्र रचा गया है। जो शास्त्रान्तर से हेयोपादेयतत्त्वों को जान चुका है उनके प्रति इस ग्रंथ को नहीं रचा है । इसप्रकार परीक्षामुख के अंतिम श्लोक का विवरण है।
इसप्रकार माणिक्यनन्दी प्राचार्य द्वारा विरचित परीक्षामुख नामा सूत्र ग्रन्थ के अलंकार स्वरूप प्रमेयकमलमार्तण्ड नाना टीका ग्रंथ में जो कि श्री प्रभाचन्द्र आचार्य द्वारा रचित है, षष्ठ परिच्छेद समाप्त हुप्रा ।
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