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________________ उपसंहार: ७०३ प्रादर्शधर्मसद्भावादिदमप्यादर्शः । यथैव ह्यादर्श: शरीरालङ्कारार्थिनां तन्मुखमण्डनादिकं विरूपक हेयत्वेन सुरूपक चोपादेयत्वेन सुस्पष्टमादर्शयति तथेदमपि शास्त्रं हेयोपादेयतत्त्वे तथात्वेन प्रस्पष्टमादर्शयतीत्यादर्श इत्यभिधीयते । तदीदृशं शास्त्रं किमर्थं विहितवान् भवानित्याह । संविदे। कस्येत्याह मादृशः । कीदृशो भवान् यत्सदृशस्य संवित्त्यर्थं शास्त्रमिदमारभ्यते इत्याह-बाल: । एतदुक्तं भवतियो मत्सदृशोऽल्पप्रज्ञस्तस्य हेयोपादेयतत्त्वसंविदे शास्त्रमिदमारभ्यते इति । किंवत् ? परीक्षादक्षवत् । यथा परीक्षादक्षो महाप्रज्ञः स्वसदृशशिष्यव्युत्पादनार्थं विशिष्टं शास्त्रं विदधाति तथाहमपीदं विहितवानिति । ननु चाल्पप्रज्ञस्य कथं परीक्षादक्षवत् प्रारब्धवविधविशिष्ट शास्त्रनिर्वहणं तस्मिन्वा कथमल्पप्रज्ञत्वं परस्पर विरोधात् ? इत्यप्यचोद्यम् ; प्रौद्धत्यपरिहारमात्रस्य वैवमात्मनो ग्रन्थकृता प्रदर्शनात् । मुख-प्रवेशद्वार सदृश है ऐसे इस शास्त्र को मैंने 'व्यधाम्' रचा है। इस परीक्षा मुख शास्त्र का विशेषण कहते हैं-आदर्श अर्थात् दर्पण उसके धर्म का सद्भाव होने से यह ग्रंथ आदर्श कहलाता है अर्थात् जिस प्रकार प्रादर्श शरीर को अलंकृत करने के इच्छुक जनों को उनके मुखके सजावट में जो विरूपक [ कुरूप ] है उसको हेमरूप से और सुरूपक है उसको उपादेयरूप से साफ स्पष्ट दिखा देता है उसीप्रकार यह परीक्षामुख शास्त्र भी हेय और उपादेयतत्त्व को स्पष्ट दिखा देता है इसलिये इसे प्रादर्श कहते हैं । इसप्रकार के शास्त्र को प्रापने किस लिये रचा ऐसे प्रश्न के उत्तर में कहते हैं 'संविदे' सुज्ञान के लिये रचा है । किसके ज्ञान के लिये तो 'मादृशः' मुझ जैसे के ज्ञान के लिये । आप कैसे हैं जिससे कि अपने समान वाले के ज्ञानार्थ आपने यह शास्त्र रचा है तो 'बाल:' अर्थात् जो मेरे जैसा अल्प ज्ञानी है उसके हेयोपादेय तत्त्वों के ज्ञानार्थ यह शास्त्र प्रारम्भ हुआ। परीक्षा दक्ष के समान, जैसे परीक्षा में दक्ष अर्थात् चतुर अकलंक देव आदि महाप्रज्ञ पुरुष अपने सदृश शिष्यों को व्युत्पत्तिमान बनाने हेतु विशिष्ट शास्त्र रचते हैं वैसे मैंने भी इस शास्त्र को रचा है।। शंका-अल्पज्ञ पुरुष परीक्षा में दक्ष पुरुष के समान इस प्रकार का विशिष्ट शास्त्र रचनाका प्रारम्भ एवं निर्वहरण कैसे कर सकता है ? यदि करता है तो उसमें अल्पज्ञपना कैसे हो सकता है दोनों परस्पर में विरुद्ध हैं ? समाधान-यह शंका ठीक नहीं, यहां पर केवल अपनी धृष्टता का परिहार ही ग्रन्थकार ने किया है, अर्थात् प्राज्ञ होते हुए भी लघुता मात्र प्रदर्शित की है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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