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________________ ७०२ प्रमेयकमलमार्तण्डे सभ्या: वादिप्रतिवादिनोर्जयेतरव्यवस्थां कुयुः । चतुर्थपक्षे तु तन्निग्रहः सुप्रसिद्ध एव; स्वपरपक्षयोः साधनदूषणाऽप्रतिपादनात् । इत्यलमतिप्रसंगेन । अथेदानीमात्मन: प्रारब्धनिर्वहणमौद्धत्यपरिहारं च सूचयन् परीक्षामुखेत्याद्याह परीक्षामुखमादर्श हेयोपादेयतत्त्वयोः संविदे मादृशो बालः परीक्षादक्षवद्व्यधाम् ॥ १॥ परीक्षा तर्कः, परि समन्तादशेषविशेषत ईक्षणं यत्रार्थानामिति व्युत्पत्तेः । तस्या मुखं तद्व्युत्पत्ती प्रवेशार्थिनां प्रवेशद्वारं शास्त्रमिदं व्यधामहं विहितवानस्मि । पुनस्तद्विशेषणमादर्शमित्याद्याह । का सार यह निकलता है कि पत्र गूढ अर्थवाला होता है उस अर्थ को प्रतिवादी एवं सभ्य पुरुष जानते हैं तथा प्रतिवादी उक्त पत्र वाक्य का निराकरण करता है, यहां ऊपर जो चर्चा उठायी है कि यदि प्रतिवादी वादी के पत्र वाक्य को नहीं जाने तो क्या होगा ? किसका जय होगा ? प्राश्निक पुरुष भी उक्त अर्थ को नहीं जाने तो जयादि की व्यवस्था कैसे होगी इत्यादि सो ये शंकायें व्यर्थ की हैं, वाद करने का अधिकार महान् तार्किक विद्वानों को ही हुआ करता है, तथापि कदाचित् किसी वादी के गढ पत्र को प्रतिवादी ज्ञात न कर सके तो इतने मात्र से निग्रह या पराजय, जय का निर्णय नहीं हो सकता। वादी को तो स्वपक्ष का विश्लेषण सभ्य जनों के सामने करना ही होगा एवं उसको सिद्ध करना होगा तभी जय की व्यवस्था संभव है । अस्तु । इसप्रकार पत्र विचार नामा यह अंतिम प्रकरण समाप्त होता है । अब श्री माणिक्यनंदी आचार्य अपने द्वारा प्रारम्भ किया गया जो परीक्षामुख ग्रन्थ है उसके निर्वहन की सूचना एवं प्रौद्धत्य परिहार अर्थात् स्व लघुता की सूचना करते हुए अंतिम श्लोक द्वारा उपसंहार करते हैं परीक्षामुखमादर्श हेयोपादेयतत्त्वयोः । संविदे मादृशो बाल: परीक्षादक्षवद्व्यधाम् ।। १ ।। अर्थ-तर्क को परीक्षा कहते हैं, परि-संमतात् सब ओर से विशेषतया अर्थों का जहां 'ईक्षणं' देखना हो उसे परीक्षा-परिईक्षा-परीक्षा कहते हैं। उस परीक्षा का मुख अर्थात् परीक्षा को जानने के लिये उसमें प्रवेश करने के इच्छुक पुरुषों के लिये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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