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प्रमेयकमलमार्तण्डे
मम चेतसि वर्तते, प्रत्र त्वया साधनं दूषणं वा वक्तव्यम्' इति । दृश्यन्ते साम्प्रतमप्यऽमत्सरा: सन्त एवं वदन्त:-'शब्दो नित्योऽनित्य इति वाऽस्माकं मनसि प्रतिभाति, तत्र यदि भवतां दूषणाद्यभिधाने सामर्थ्यमस्ति यामः सभ्यान्तिकम्' इति । कालान्तरेऽविस्मरणार्थ तद्दानं चेत् ; तो गूढं पत्रं दातव्यम्, इतरथा तद्दाने पि विस्मरणसम्भवे किं कर्तव्यम् ? विस्मतु निग्रहश्चेत् ; न; पूर्वसङ्केतविधानवैयर्थ्यप्रसङ्गात् । न तत्प्रसङ्गः प्रतिवादिनः पत्रार्थपरिज्ञानार्थत्वात्तस्येति चेत् तहि तत्परिज्ञानार्थ विस्मृतसङ्केतस्य पुनस्तद्विधानमेवास्तु, न तु निग्रहः। यदि च भवच्चित्ते वर्तमानोप्यर्थः सङ्कतबलेन पत्रादेव प्रतीयते; तहि ततो य: प्रतीयते स तदर्थो न मनस्येव वर्तमानः । यदि पुन: सङ्केतसहायात्पत्रात्तस्य प्रतीतेन तदर्थत्वम् ; तहि न कश्चित्कस्यचिदर्थः स्यात् सङ्कतमन्तरेण कुतश्चिच्छब्दादर्थाऽप्रतीतेः ।
हुआ ? फिर तो वादी को केवल इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि मेरे मन में यह अर्थ है इसमें तुम साधन या दूषण जो भी कुछ देना हो उसे दो। वर्तमान में भी ऐसे मत्सर रहित महापुरुष देखे जाते ही हैं कि हमारे मन में शब्द नित्य या अनित्यरूप प्रतीत होता है यदि इस विषय में आपको दूषणादि उपस्थित करने की सामर्थ्य है तो सभ्य पुरुषों के समक्ष चलें । इसप्रकार पहले ही स्वाभिप्राय को कह देते हैं। यदि कहा जाय कि कालांतर में विस्मरण न हो जाय इस हेतु से लिखित रूप पत्र दिया जाता है तो फिर उस पत्र को अगूढ-सरल अर्थ वाला देना चाहिए, अन्यथा पत्र देने पर भी अर्थ का विस्मरण होने पर क्या किया जायगा ? विस्मरण करने वाले का निग्रह किया जायगा ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि इसतरह तो पूर्व में किया हुआ संकेत व्यर्थ ठहरेगा। प्रतिवादी को पत्र के अर्थ का परिज्ञान कराने के लिये संकेत किया जाता है अतः वह व्यर्थ नहीं है ऐसा कहे तो पत्र के अर्थ का परिज्ञान कराने के लिये संकेत को भूले हुए प्रतिवादी को पुनः संकेत करना चाहिए निग्रह करना तो युक्त नहीं। अर्थात् जब प्रतिवादी को अर्थ बोध हेतु प्रथम संकेत किया है तो वह पुनः भी किया जा सकता है । दूसरी बात यह है कि आपके मन में स्थित जो भी अर्थ है और वह यदि पत्र से ज्ञात होता है तो उससे प्रतीत हुआ वह उसका अर्थ कहलाया, वह अर्थ मनमें ही है ऐसा तो नहीं रहा । तथा संकेत की सहायता लेकर पत्र से उसके अर्थ की प्रतीति हई है अतः वह अर्थ पत्र का नहीं है ऐसा माना जाय तो किसी का कोई भी अर्थ संकेत किये बिना शब्द से प्रतीत नहीं हो सकेगा। इसलिये निश्चित होता है कि पत्र देते समय प्रतिवादो को उसके अर्थ का संकेत करना सिद्ध नहीं होता। वाद के समय
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