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पत्रविचार:
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तन्न तद्दानकाले प्रतिवादिनि सङ्क ेतः । नापि वादकाले; तथाव्यवहारविरहादेव । किं च वादकालेपि द्वादी प्रतिवादिने स्वयं पत्रार्थं निवेदयति ; तर्हि प्रथमं पत्र ग्रहीतुरुपन्यासोऽनवसरः स्यात् । तन्नायमपि पक्ष | श्रेयान् ।
श्रथान्यत्र ; तहि स एव तदर्थज्ञः, इति कथं प्रतिवादी साधनादिकं वदेत् तस्य तदर्थाऽपरिज्ञानात् ? प्रतिवादिनस्तदर्थापरिज्ञानं वादिनोभीष्टमेव तदर्थत्वात्पत्रदानस्येति चेत्; तहि पत्रमनक्षरं दातव्यमतः सुतरां तदपरिज्ञानसम्भवात् । श्रशिष्टचेष्टाप्रसङ्गोन्यत्रापि समानः । इति न किञ्चित्प्रागुक्त
प्रतिवादी को अर्थ का संकेत किया जाना भी शक्य नहीं, क्योंकि ऐसा व्यवहार में होता नहीं । किंच, यदि वादी स्वयं वाद काल में भी प्रतिवादी के लिये पत्रार्थ को बतला देता है तो पहले से पत्र ग्राहक के उपन्यास का अवसर नहीं रहता । अतः वादकाल में प्रतिवादी को संकेत करने का पक्ष सिद्ध नहीं होता है ।
दूसरा विकल्प यह था कि वादी अपने मन में स्थित अर्थ का किसी अन्य पुरुष के लिये संकेत कर देता है, सो इस पक्ष में वह अन्य पुरुष ही पत्र के अर्थ को समझेगा, फिर प्रतिवादी उसमें साधनादिको कैसे कह सकेगा ? क्योंकि उसने उक्त अर्थ को जाना ही नहीं ।
शंका - प्रतिवादी को यदि उक्त अर्थ का ज्ञान नहीं होता है तो वादी के लिए अच्छा ही है इसलिये ही तो पत्र दिया जाता है ?
समाधान - यदि ऐसी बात हो तो वादी को प्रतिवादी के लिये अक्षर रहित पत्र देना चाहिए इससे खूब अच्छी तरह अपरिज्ञान सम्भव है ।
शंका- अक्षररहित पत्र देना तो अशिष्टाचार है ?
समाधान - तो फिर अपने मन में स्थित अर्थवाला पत्र देना भी अशिष्टाचार क्यों नहीं होगा ? इसलिये मन में स्थित अर्थवाला पत्र प्रतिवादी को देना तथा अर्थ अन्य किसी पुरुष को कहना रूप पत्र दान से कुछ भी प्रयोजन नहीं सधता है ।
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