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पत्रविचार:
वलम्ब्यते । यश्च तस्मादर्थः प्रतीयते नासौ तदर्थ इति न तत्र केनचित्साधनं दूषणं वा वक्तव्यमनुपयोगात् । यस्तु तदर्थो भवच्चेतसि वर्त्तमानो नासो कुतश्चित्प्रतोयते परचेतोवृत्तीनां दुरन्वयत्वादिति ? तत्रापिन साधनं दूषणं वा सम्भवति । न ह्यप्रतीयमानं वस्तु साधनं दूषणं वार्हत्यऽतिप्रसङ्गात् । यदि पुनरन्यतः कुतश्चित प्रतिपद्य प्रतिवादी तत्र साधनादिकं ब्रूयात्; तहि पत्रावलम्बनानर्थक्यम् । तत एव तत्प्रतिपत्तिश्चेच्चित्रमेतत् - ' तस्यासावर्थो न भवति ततश्च प्रतीयते' इति, गोशब्दादप्यश्वादिप्रतीतिप्रसङ्गात् । सङ्क ेते सति भवतीति चेत्कः सङ्क ेतं कुर्यात् ? पत्रदातेति चेत्; किं पत्रदानकाले, वादकाले वा, तथा प्रतिवादिनि, अन्यत्र वा ? तद्दानकाले प्रतिवादिनीति चेत्; न; तथा व्यवहाराभावात् । न खलु कश्चिद् 'अयं मम चेतस्यर्थो वर्त्त तेऽस्येदं पत्रं वाचकमस्मात्त्वयायमर्थो वादकाले प्रतिपत्तव्यः' इति सङ्क ेत विदधाति । तथा तद्विधाने वा किं पत्रदानेन ? केवलमेवं वक्तव्यम् -'अर्थो
उसके अर्थ को समझता है तो उसमें दूषरण कहे और यदि उसके अर्थ को नहीं समझता है तो पराजित होवे । जब यह कह दिया कि पत्र से जो अर्थ प्रतीत हो रहा है वह अर्थ नहीं है तब उस प्रतीत अर्थ वाले पत्र में किसी के द्वारा साधन या दूषण प्रनुपयोगी होने से कहना ही नहीं चाहिये । आपके मन में जो अर्थ है वह किसी प्रमाण से प्रतीत नहीं हो सकता क्योंकि परके चित्त का निश्चय होना शक्य है । इसलिये इस मन में स्थित अर्थ वाले पत्र वाक्य में दूषण या साधन कहना सम्भव नहीं है । अज्ञात वस्तु साधन या दूषण के योग्य नहीं हुआ करती है अतिप्रसंग आता है । यदि कहा जाय कि प्रतिवादी किसी अन्य से उस चित्त स्थित अर्थ को ज्ञात करके फिर उसमें साधनादि को बोल देगा, तो पत्र का अवलंबन लेना व्यर्थ ठहरता है । यदि कहा जाय कि मन में स्थित अर्थ की उस पत्र से ही प्रतीति होती है, तो यह आश्चर्य की बात होगी कि पत्र का मनमें स्थित यह अर्थ भी नहीं है और इस पत्र वाक्य से वह प्रतीत भी होता है ? इससे तो गो शब्द से भो अश्व की प्रतीति होने का प्रसंग आयेगा, यदि कहा जाय कि मनमें स्थित अर्थ यद्यपि पत्र से अप्रतीत है तो भी संकेत कर देने पर वह अर्थ प्रतीत हो जायगा ? तो प्रश्न होता है कि उस संकेत को कौन करेगा ? पत्रदाता संकेत करता है तो कब करेगा पत्र देते समय या वाद के समय, तथा प्रतिवादी को संकेत करेगा या अन्य किसी पुरुष को संकेत करेगा ? पत्र देते समय प्रतिवादी को संकेत करता है ऐसा कहना शक्य है क्योंकि ऐसा व्यवहार होता ही नहीं, देखिये, मेरे मन में यह अर्थ है, यह पत्र इस अर्थ का वाचक [ कहता ] है, वादकाल में तुम इसका यह अर्थ समझना इसतरह के संकेत को वादी कैसे करे ? यदि करता है तो पत्र देने में लाभ ही क्या
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