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________________ ६६२ प्रमेयकमलमार्त्तण्डे ] यवा भागा इत्यर्थः, सह कलाभिर्वर्तते इति सकला । वित् श्रात्मलाभो - "विद्लृ लाभे" [ इति वचनात् । यस्य सकला वित् वृणोति प्रच्छादयतीत्यौणादिके गे वर्ग इति भवति । सकलविच्चासी वर्गश्चेति सकल विद्वर्ग :- पट इत्यर्थः । तेन तुल्यं वर्त्तते इति सकलविद्वगंवत् । एतच्च तन्वादि एवमनादिरवायनीयप्रकारं तत्तस्माद्बुद्धिमत्कारणमिति । तदेतदसमीचीनम् ; अनुमाना भासत्वादस्य । तदाभासत्वं च तदवयवानां प्रतिज्ञाहेतुदाहरणानां कालात्ययापदिष्टत्वाद्यनेक दोषदुष्टत्वेन तदाभासत्वासिद्धम् । एतच्चेश्वर निराकरणप्रकरणाद्विशेषतोवगन्तव्यम् । ननु चोक्तलक्षणे पत्रे केनचित्कमप्युद्दिश्यावलम्बिते तेन च गृहीते भिन्न च यदा पत्रस्य दातैवं ब्रूयात् 'नायं मदीयपत्रस्यार्थः' इति, तदा किं कर्तव्यमिति चेत्; तदासौ विकल्प्य प्रष्टव्य :-कोयं भवत्पत्रस्यार्थो नाम - किं यो भवन्मनसि वर्तते सोस्यार्थः, वाक्यरूपात्पत्रात्प्रतीयमानो वा स्यात्, भवस्मनसि वर्तमानः ततोपि च प्रतीयमानो वा प्रकारान्तरासम्भवात् ? तत्र प्रथमपक्षे पत्रावलम्बनमनर्थकम् । तद्वि (द्धि) प्रतिवादी समादाय विज्ञातार्थस्वरूपस्तत्र दूषणं वदतु विपरीतस्तु निर्जितो भवत्वित्य वाक्य का विवरण है । जो सरल शब्दों में तनु पर्वत आदि पदार्थ बुद्धिमान कारण से निर्मित है कार्य होने से, जो कार्य होता है वह बुद्धिमान द्वारा निर्मित होता है जैसे वस्त्र, तनु पर्वतादि कार्य है अतः बुद्धिमान कारण युक्त है । सो यह योगाभित प्रत्यन्त क्लिष्ट रूप अनुमान वाक्य भी अनुमानाभास मात्र है क्योंकि इसके अवयव जो प्रतिज्ञा हेतु उदाहरण हैं उनमें कालात्ययापदिष्ट आदि अनेक दोष हैं । इस अनुमान का निराकरण ईश्वर निराकरण प्रकरण में विशेष रूप से किया गया है वहीं से इसका विशेष ज्ञात करना चाहिये । शंका- इसप्रकार के लक्षण वाले पत्र का किसी वादी ने किसी प्रतिवादी को उद्देश्य कर अवलंबन लिया, किन्तु प्रतिवादी ने उक्त पत्र वाक्य का कोई भिन्न ही अर्थ ग्रहण किया उस समय पत्र दाता कहे कि मेरे पत्र का ऐसा अर्थ नहीं है तब प्रतिवादी का कर्त्तव्य रहेगा ? समाधान - उस समय प्रतिवादी को पूछना चाहिये कि श्रापके पत्र का अर्थ क्या है जो आपके मन में है वह है अथवा इस पत्र वाक्य से जो प्रतीत हो रहा वह है, किंवा आपके मन में स्थित और पत्र से प्रतीयमान ऐसा उभय अर्थ है ? इनसे भिन्न तो कोई प्रकार अर्थ हो नहीं सकता । प्रथम पक्ष कहो तो पत्र का अवलंबन लेना व्यर्थ है, क्योंकि पत्र का अवलंबन इसलिये लिया जाता है कि प्रतिवादी उस पत्र को पढकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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