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________________ पत्रविचार: एतेषां द्वन्द्व कवद्भावः। किम्भूतः स तच्च । न विद्यते ना पुरुषो निमित्तकारणमस्येति । रटनं परिभाषणं तस्य लड् विलासः, तं जुषते सेवते इति-'जुषी प्रीतिसेवनयोः" [ ] इत्यभिधानात् । अनृरड्लड्जुट् । अत्रापि कबऽभावे निमित्तमुक्तम् । अत्र साध्यधर्ममाह । परापरतत्त्ववित्तदन्य इति । परं पार्थिवादिपरमाण्वादिकारणभूतं वस्तु, अपरं पृथिव्यादिकार्यद्रव्यम्, तयोस्तत्त्वं स्वरूपम्, तस्मिन्विद् बुद्धिर्यस्यासौ परापरतत्त्ववित्-कार्यकारणविषयबुद्धिमान् पुरुष इत्यर्थः । तस्मात्परोक्तादन्यः परापरतत्त्ववित्तदन्यो बुद्धिमत्कारण इत्यर्थः । यदा नपुसकेन सम्बन्धस्तदा परापरतत्त्ववित्तदन्यदिति व्याख्येयम् । कुत एतदित्याह-प्रनादिरवायनीयत्वत इति । कार्यस्य हेतुरादिस्ततः प्राग्रे व तस्य भावात् । तस्मादन्योऽनादि: कार्यसन्दोहः । तस्य रवस्तत्प्रतिपादकं कार्य मिति वचनम् । तेनायनीयं प्रतिपाद्यं तस्य भावस्तत्त्वम्, तस्मादनादिरवायनीयत्वत:-'कार्यत्वात्' इत्यर्थः । एवं यदनादिरवायनीयं तदीदृग् बुद्धिमत्कारणम् । तत्कला प्रव समाहार द्वन्द्व समास किया है उक्त पदार्थ कैसा है तो नहीं है पुरुष कारण जिसका ऐसा है । रट् भाषण है उसका लड् विलास है इसमें सेवन अर्थ का जुष् धातु जुड़कर समास होकर अनुरड्लड्जुट बना । यहां तक पक्ष का कथन हुआ। अब साध्य को कहते हैं-'परापरतत्त्ववित्तदन्य' पृथिवी आदि के कारणभूत परमाणु आदि वस्तु को 'पर' कहते हैं और इन्हीं के कार्यों को अपर कहते हैं, उनके स्वरूप को जानने वाली बुद्धि जिसके है वह परापरतत्त्ववित् है। उससे जो अन्य हो अर्थात् अबुद्धिमान कारणरूप हो वह परापरतत्त्व वित्तदन्य हैं । यदि इस पद को नपुसक लिंग बनावे तो परापरतत्त्ववित्तदन्यत् । अब हेतु निर्देश करते हैं-'अनादिरवायनीयत्वत' कार्य के पहले होने से कारण को आदि कहते हैं उससे भिन्न अनादि है उस रूप कार्य समूह, उसका अव अर्थात् प्रतिपादक वचन उससे अयनीय अर्थात् प्रतिपाद्य । इसमें त्व प्रत्यय एवं पंचमी निर्देष होने पर अनादिरवायनीयत्वत: अर्थात् कार्यत्वात् यह हेतु पद हुमा । अब उदाहरण कहते हैं, इस तरह जो अनादिरवायनीय है वह ऐसा बुद्धिमान कारण है। अवयव या भाग को कला कहते हैं कलायुक्त को सकल कहते हैं इसमें लाभार्थक वित् धातु जोड़ा पुनः संवरण अर्थ वाले वृ धातु में प्रोणादिका ग प्रत्यय लगाके सकलविद्वर्गः बना इसका अर्थ पट-वस्त्र हुआ। इसमें उपमा वाचक वत् जुड़ा सकलविद्वर्गवत् । यह तनु भुवन आदि इसतरह अनादिरवायनीय [ कार्यत्वात् ] है अतः बुद्धिमत्कारणरूप है । इसप्रकार सैन्यलड्भाग्' से लेकर सकलविद्वर्गवत् तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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