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________________ नय विवेचनम् ६६६ भेदेनाऽभिन्नमर्थं प्रतिपद्यमानादृजुसूत्रतः तत्पूर्वकः शब्दनयोप्यल्पविषय एव तद्विपरीतार्थगोचरत्वात् । शब्दनयात्पर्यायभेदेनार्थाभेदं प्रतिपद्यमानात् तद्विपर्ययात् तत्पूर्वकः समभिरूढोप्यल्पविषय एव । समभिरूढतश्च क्रियाभेदेनाऽभिन्नमर्थं प्रतियतः तद्विपर्ययात् तत्पूर्वक एवम्भूतोप्यल्प विषय एवेति । नन्वेते नयाः किमेकस्मिन्विषयेऽविशेषेरण प्रवर्त्तन्ते, किं वा विशेषोस्तीति ? प्रत्रोच्यतेयत्रोत्तरोत्तरो नयोऽर्थांशे प्रवर्त्तते तत्र पूर्वः पूर्वोपि नयो वर्त्तते एव, यथा सहस्रेऽष्टशती तस्यां वा पञ्चशतोत्यादी पूर्व संख्योत्तरसंख्यायामविरोधते वर्त्तते । यत्र तु पूर्व: पूर्वो नयः प्रवर्त्तते तत्रोत्तरोत्तरो नयो न प्रवर्त्तते पञ्चशत्यादावऽष्टशत्यादिवत् । एवं नयार्थे प्रमाणस्यापि सांशवस्तुवेदिनो वृत्तिरविरुद्धा, न तु प्रमाणार्थे नयानां वस्त्वंशमात्र वेदिनामिति । का भेद होने पर भी अभिन्न अर्थ को ग्रहण करता है, और शब्दनय कारकादि के भेद होने पर अर्थ में भेद ग्रहण करता है अतः ऋजुसूत्र से शब्दनय अल्प विषयवाला है तथा ऋजुसूत्रपूर्वक होने से शब्दनय उसका कार्य है । शब्दनय पर्यायवाची शब्द या पर्याय के भिन्न होनेपर भी उनमें ग्रर्थ भेद नहीं करता किंतु समभिरूढनय पर्याय के भिन्न होनेपर अर्थ में भेद करता है अतः शब्दनय से समभिरूढनय अल्प विषयवाला है एवं तत्पूर्वक होने से उसका कार्य है । समभिरूढनय क्रिया का भेद होने पर भी ग्रर्थ में भेद नहीं करता किन्तु एवंभूत क्रिया भेद होने पर अवश्य अर्थ भेद करता है अतः समभिरूढ से एवंभूत अल्प विषयवाला है तथा तत्पूर्वक होने से कार्य है । इस प्रकार नैगमादिनयों का विषय और कारण कार्य भाव समझना चाहिये । शका- -ये सात नय एक विषय में समानरूप से प्रवृत्त होते हैं अथवा कुछ विशेषता है ? समाधान - विशेषता है, वस्तु के जिस अंश में आगे आगे का नय प्रवृत्त होता है उस अंश में पूर्व पूर्व का नय प्रवृत्त होता ही है, जैसे कि हजार संख्या में आठसौ की संख्या रहती है एवं आठसी में पांचसौ रहते हैं, पूर्व संख्या में उत्तर संख्या रहने का विरोध है । किंतु जिस वस्तु अंश में पूर्व पूर्व का नय प्रवृत्त है उस अंश में उत्तर उत्तर का नय प्रवृत्त नहीं हो पाता, जैसे कि पांचसौ की संख्या में श्राठसौ संख्या नहीं रहती है । इसीतरह सकल अंश युक्त या सांश वस्तु के ग्राहक प्रमाण की नय के विषय में प्रवृत्ति होना अविरुद्ध है, किंतु एक अंशमात्र को ग्रहण करने वाले नयों की प्रमाण के विषय में प्रवृत्ति नहीं हो सकती है । जैसे पांचसौ में प्राठसौ नहीं रहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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