SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 711
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे एवमेते शब्दसमभिरूढवम्भूतनयाः सापेक्षा: सम्यग्, अन्योन्यमनपेक्षास्तु मिथ्येति प्रतिपत्तव्यम् । एतेषु च नयेषु ऋजुसूत्रान्ताश्चत्वारोर्थप्रधानाः शेषास्तु त्रयः शब्दप्रधानाः प्रत्येतव्याः। कः पुनरत्र बहुविषयो नयः को वाल्पविषयः कश्चात्र कारणभूतः कार्यभूतो वेति चेत् ? 'पूर्वः पूर्वो बहुविषयः कारणभूतश्च पर : परोल्पविषयः कार्यभूतश्च' इति ब्रमः । संग्रहाद्धि नैगमो बहुविषयो भावाऽभावविषयत्वात्, यथैव हि सति सङ्कल्पस्तथाऽसत्यपि, संग्रहस्तु ततोल्पविषयः सन्मात्रगोचरत्वात्, तत्पूर्वकत्वाच्च तत्कार्यः । संग्रहाद्वयवहारोपि तत्पूर्वकः सद्विशेषावबोधकत्वादल्पविषय एव । व्यवहारास्कालत्रितयवृत्त्यर्थगोचरात् ऋजुसूत्रोपि तत्पूर्वको वर्तमानार्थगोचरतयाल्पविषय एव । कारकादि उसे व्यवहार से जातिवाचक कहो या गुणवाचक कहो सबके सब शब्द क्रियावाचक ही हैं-क्रिया के द्योतक ही हैं । ये शब्दनय, समभिरूढनय और एवंभूतनय परस्पर में सापेक्ष हैं तो सम्यग्नय कहलाते हैं यदि परस्पर में निरपेक्ष हैं तो मिथ्यानय कहलाते हैं ऐसा समझना चाहिये । [नैगमादि सातोंनय परस्पर सापेक्ष होने पर ही सम्यग्नय हैं अन्यथा मिथ्यानय हैं] इन सात नयों में नैगम, संग्रह व्यवहार और ऋजुसूत्र ये चार नय अर्थ प्रधान नय हैं और शेष तीन शब्द, समभिरूढ और एवंभूतनय शब्द प्रधान नय कहलाते हैं । शंका-इन नयों में कौनसा नय बहुविषयवाला है और कौनसा नय अल्प विषयवाला है, तथा कौनसा नय कारणभूत और कौनसा नय कार्यभूत है ? समाधान-पूर्व पूर्व का नय बहुविषयवाला है एवं कारणभत है, तथा आगे आगे का नय अल्पविषयवाला है एवं कार्यभूत है । संग्रह से नैगम बहुत विषय वाला है क्योंकि नैगम सद्भाव और अभाव दोनों को विषय करता है, अर्थात् विद्यमान वस्तु में जैसे संकल्प सम्भव है वैसे अविद्यमान वस्तु में भी सम्भव है, इस नैगम से संग्रहनय अल्प विषयवाला है, क्योंकि यह सन्मात्र-सद्भावमात्र को जानता है। तथा नैगम पूर्वक होने से संग्रहनय उसका कार्य है । व्यवहार भी संग्रह पूर्वक होने से कार्य है एवं विशेष सत् का अवबोधक होने से अल्प विषयवाला है । व्यवहार तीनकालवर्ती अर्थ का ग्राहक है उस पूर्वक ऋजुसूत्र होता है अतः ऋजुसूत्र उसका कार्य है एवं केवल वर्तमान अर्थ का ग्राहक होने से अल्प विषयवाला है। ऋजुसूत्रनय कारक आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy