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प्रमेयकमलमार्तण्डे ता हि तेन विनोत्पन्ना मिथ्याः स्युविषयादृते । न त्वन्येन विना वृत्तिः सामान्यस्येह दुष्यति ॥२॥"
[ मी० श्लो. प्राकृति० श्लो० ३७-३८ ] इति ; तन्निरस्तम् ; नित्यसर्वगतसामान्यस्याश्रयादेकान्ततो भिन्नस्याभिन्नस्य वाऽनेकदोषदुष्टत्वेन प्रतिपादितत्वात् । अनुगतप्रत्ययस्य च सदृशपरिणाम निबन्धनत्वप्रसिद्ध: । स चानित्योऽसर्वगतोऽनेकव्यक्त्यात्मकतयाऽनेकरूपश्च रूपादिवत्प्रत्यक्षत एव प्रसिद्धः । ततो भट्टेनायुक्तमुक्तम्
"पिण्डभेदेषु गोबुद्धिरेकगोत्वनिबन्धना । गवाभासकरूपाभ्यामेकगोपिण्डबुद्धिवत् ।।१॥"
[ मी० श्लो० वनवाद श्लो० ४४ ]
के समवाय की यहां आवश्यकता है अर्थात् व्यक्ति में जाति ( सामान्य ) न तादात्म्य सम्बन्ध से है और न समवाय सम्बन्ध से है किन्तु स्वभाव से ही है, ऐसा सामान्य का स्वरूप मानने में दोष भी नहीं आता ।।१-२।। इस प्रकार का मीमांसक का मंतव्य जैन को मान्य नहीं है, क्योंकि इस बात को हम भली प्रकार से प्रतिपादन कर आये हैं कि नित्य तथा सर्वगत स्वभाव वाला सामान्य अपने आश्रयभूत व्यक्ति से न सर्वथा भिन्न रूप सिद्ध होता है और न सर्वथा अभिन्न स्वभाव रूप ही सिद्ध होता है, उसमें तो व्यक्ति और जाति का एकत्व हो जाना, इत्यादि अनेक दोष भरे हैं जो पहले बता आये हैं ( अर्थात् गो व्यक्ति से गोत्व सामान्य सर्वथा अभिन्न स्वभाव रूप है तो गो व्यक्ति के उत्पन्न होते ही उत्पन्न होगा और नष्ट होने पर नष्ट होगा, सो ऐसा मानने से सामान्य अनित्य और असर्वगत सिद्ध होता है तथा गो व्यक्ति से गोत्व सामान्य को सर्वथा पृथक् मानते हैं तो व्यक्तियों के अन्तराल में भी गोत्व की प्रतीति होनी चाहिये इत्यादि ) जैन के ऊपर यह सब दूषण नहीं आते हैं क्योंकि हमारे यहां तो अनुगताकार ज्ञान का हेतु सदृश परिणाम माना है अर्थात् गो आदि व्यक्तियों में गोत्व आदि सामान्य धर्म हा करते हैं उन्हींके निमित्त से अनेकों व्यक्तियों में समानता का बोध हो जाया करता है। वह सदृश परिणाम स्वरूप सामान्य अनित्य एवं असर्वगत है, तथा अनेक व्यक्ति स्वरूप होने से अनेक भी है यह तो रूप, रसादि के समान प्रत्यक्ष प्रमाण से ही प्रतिभासित हो रहा है, बिलकुल प्रत्यक्ष सिद्ध बात है। अतः भट्ट ने जो कहा है वह खण्डित होता है, उसी भट्ट का मंतव्य प्रस्तुत करते हैं- शबल, धवल आदि अनेक
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