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यचेदमुक्तम्
सामान्यस्वरूपविचार:
"न शावलेयाद्गोबुद्धिस्ततोऽन्यालम्बनापि वा । तदभावेपि सद्भावाद् घटे पार्थिवबुद्धिवत् ।। "
[ मी० श्लो० वनवाद श्लो० ४ ]
तत्सिद्धसाधनम् ; व्यक्तिव्यतिरिक्तसदृशपरिणामालम्बनत्वात्तस्याः । यच्च सामान्यस्य सर्वगतत्वसाधनमुक्तम्—
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गो पिण्डों में जो गो बुद्धि होती है वह एक गोत्व सामान्य के निमित्त से ही होती है, क्योंकि उनमें गो का प्रतिभास है तथा एक रूप है, जैसे कि एक गोपिंड में एक बुद्धि होती है ।।१।। इस श्लोक का अभिप्राय यह है कि जैसे एक गो में एकत्व रूप ज्ञान होता है वैसे अनेक गो व्यक्तियों में भी एक गोत्व रूप ही तो प्रतिभास होता है अतः सामान्य को एक रूप माना है ।
और भी कहा है
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अनेक गो व्यक्तियों में जो गोत्व प्रतिभास होता है वह न शाबलेय गो से होता है और न अन्य किसी से होता है, क्योंकि शाबलेय आदि गो के प्रभाव में भी उसका सद्भाव देखा जाता है, जिस प्रकार कि घट में मिट्टोपने का प्रतिभास हुआ करता है, अर्थात् काला घट, लाल घट आदि में जो घटत्व का बोध है वह न काले घट के कारण है और न लाल घट के कारण है वह तो सब घटों में व्यापक, एक सामान्य घटत्व रूप मिट्टीपने के कारण ही है, ठीक इसी प्रकार शाबलेय गो, बाहुलेय गो आदि में जो गोत्व का बोध है वह न शाबलेय के कारण है और न बाहुलेय के कारण है वह तो एक, व्यापक सामान्य के कारण ही होता है || १ || सो इस भट्ट के मंतव्य पर हम जैन का कहना है कि जिस प्रकार आप शाबलेयादि गो व्यक्ति को गोत्व प्रतिभास का कारण नहीं मान रहे उसी प्रकार हम भी गो व्यक्ति को गोत्व सामान्य के प्रतिभास का कारण नहीं मानते किन्तु गो व्यक्ति से प्रतिरिक्त जो सदृश परिणाम है वही गोत्व प्रतिभास का कारण है अतः उपर्युक्त कथन सिद्ध साधन [ सिद्धको ही सिद्ध करना ] रूप होता है ।
मीमांसक सामान्य को सर्वगत सिद्ध करने के लिये अपना लंबा पक्ष उपस्थित करते हैं—प्रत्येक व्यक्ति में समवेत रूप से रहने वाले पदार्थ को विषय करने वाली गो
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