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सामान्यस्वरूपविचारः
व्यक्तिजन्मन्यजाता चेदागता नाश्रयान्तरात् । प्रागासीन्न च तद्देशे सा तया सङ्गता कथम् ? ॥३।। व्यक्तिनाशे न चेन्नष्टा गता व्यक्त्यन्तरं न च । तच्छ्न्ये न स्थिता देशे सा जाति : क्वेति कथ्यताम् ? ।।४।। व्यक्तेर्जात्यादियोगेपि यदि जातेः स नेष्यते ।
तादात्म्यं कथमिष्टं स्यादनुपप्लुतचेतसाम् ? ।।५।।" [ ततो यदुक्त कुमारिलेन
"विषयेण हि बुद्धीनां विना नोत्पत्तिरिष्यते । विशेषादन्यदिच्छन्ति सामान्यं तेन तद्भवम् ।।१।।
]
व्यक्ति के जन्म होने पर उसमें गोत्वादि सामान्य जन्म नहीं लेता, अन्य आश्रयभूत व्यक्ति से वहां पाता भी नहीं, एवं उस व्यक्ति देश में पहले भी नहीं था तो बताइये कि व्यक्ति अर्थात् विशेष का जाति अर्थात् सामान्य के साथ तादात्म्य किस प्रकार हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता है ।।२॥ विवक्षित एक किसी व्यक्ति के नष्ट होने पर उसमें होने वाला सामान्य नष्ट नहीं होता है अन्य व्यक्ति में चला भी नहीं जाता है, उस व्यक्ति से रहित जो स्थान अवशेष है उसमें भी सामान्य नहीं ठहरता फिर बताओ कि वह सामान्य किस प्रकार का है ? ॥३।। यदि व्यक्ति के जन्मादि के होने पर भी सामान्य का जन्म होना आदि सिद्ध नहीं हो पाता है तो अभ्रान्त चित्त वाले पुरुष उन जाति और व्यक्ति में तादात्म्य किस प्रकार स्वीकार कर सकते हैं ? [अर्थात् नहीं कर सकते ॥४॥ कुमारिल नामा ग्रंथकार ने भी कहा है कि ज्ञानों की उत्पत्ति विषय के बिना हो नहीं सकती यह नियम है, अनुगताकार ज्ञान [यह गो है, यह गो है इत्यादि समानाकार प्रतिभास] भो बिना विषय के होना शक्य नहीं अतः इन ज्ञानों का विषय विशेष से पृथक् अन्य कोई सामान्य है ऐसा जैनादि वादी का कहना है, अनुगताकार बुद्धि विषय के बिना उत्पन्न होगी तो वह मिथ्या ही कहलायेगी, क्योंकि विषय के बिना जो हो वह असत् प्रतिभास माना जाता है, सो यह बात तो ठीक है किन्तु सामान्य व्यक्ति में स्वभाव से हो है उससे अनुगताकार ज्ञान होगा ही उसके लिये सामान्य का विशेष में तादात्म्य मानना ही जरूरी हो सो बात नहीं और न वैशेषिक
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