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प्रमेयकमलमार्तण्डे
इत्यभिधानात्; तेषां व्यक्तिवत्तस्यासाधारणरूपत्वानुषङ्गाद् व्यक्त्युत्पादविनाशयोश्चास्यापि तद्योगित्वप्रसङ्गान्न सामान्यरूपता । अथाऽसाधारणरूपत्वमुत्पादविनाशयोगित्वं चास्य नाभ्युपगम्यते, तहि विरुद्धधर्माध्यासतो व्यक्तिभ्योऽस्य भेदः स्यात् ।
"तादात्म्यं चेन्मत जातेय॑क्तिजन्मन्यजातता। नाशेऽनाशश्च केनेष्टस्तद्वच्चानन्वयो न किम् ? ।।२।।
भाट्ट--सामान्य असाधारण स्वरूप नहीं है तथा व्यक्ति के समान उत्पत्ति और विनाश वाला भी नहीं है, अर्थात् व्यक्ति के उत्पत्ति और विनाश युक्त होने के कारण सामान्य भी वैसा हो सो बात हमें इष्ट नहीं है ।
जैन- तो फिर सामान्य और विशेष में विरुद्ध धर्म होने के कारण भिन्नपन्ना ही मानना होगा, क्योंकि विशेषभूत व्यक्ति उत्पाद और विनाश युक्त है और सामान्य नहीं है, यही विरुद्ध स्वभावत्व हुआ इस तरह व्यक्तियों से सामान्य भिन्न रूप सिद्ध होता है।
अब यहां पर भाट्ट सामान्य के विषय में अपना पक्ष रखता है- हम भाट्ट मीमांसक सामान्य को विशेष का स्वभाव मानते हैं, किन्तु जैन आदि इसका विशेष के साथ तादात्म्य सम्बन्ध मानते हैं, सो व्यक्ति के साथ सामान्य का तादात्म्य सम्बन्ध है तो उस व्यक्ति के उत्पन्न होने पर उत्पन्न होना और नष्ट होने पर नष्ट होना क्यों नहीं होता है ? अर्थात् जब गोत्व सामान्य का खंड मुण्ड आदि व्यक्तियों के साथ तादात्म्य है तो उक्त गो व्यक्तियों के समान गोत्व सामान्य का भी अनन्वय अर्थात असाधारणपना क्यों नहीं होगा अवश्य होगा।
अभिप्राय यह है कि शबली, धवली आदि गो व्यक्तियां और उनमें होनेवाला सास्नादिमत्व रूप सामान्य इनको जैनादिवादी दो रूप बताकर फिर तादात्म्य सम्बन्ध रूप स्वीकार करते हैं सो उसमें प्रश्न होता है कि जब दोनों एक रूप हो गये तो जैसे शबली आदि गो व्यक्तियों का परस्पर में अन्वय नहीं रहता अर्थात् शबली गो धवली में और धवली गो शबली में नहीं होती उसी प्रकार गोत्व सामान्य को उनमें नहीं होना था ? किन्तु गोत्वादि सामान्य का तो सर्वत्र गो व्यक्तियों में अन्वय पाया जाता ही है, सो यह क्यों होता है इस प्रश्न का उत्तर जैनादि नहीं दे पाते ।।१।। यदि गो आदि
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