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________________ प्रमेय कमलमार्त्तण्डे ग्रहगृहीतार्थानां विधिपूर्वक मबहरणं विभजनं भेदेन प्ररूपणं व्यवहारः । परसंग्रहेण हि सद्धर्माधारतया सर्वमेकत्वेन 'सत्' इति संगृहीतम् । व्यवहारस्तु तद्विभागमभिप्रेति । यत्सत्तद्रव्यं पर्यायो वा । तथैवापरः संग्रहः सर्वद्रव्याणि 'द्रव्यम्' इति, सर्वपर्यायांश्च 'पर्याय' इति संगृह्णाति । व्यवहारस्तु तद्विभागमभिप्रेति यद्द्रव्यं तज्जीवादि षड्विधम् यः पर्यायः स द्विविधः सहभावी क्रमभावी च । इत्यपरसंग्रहव्यवहारप्रपञ्चः प्रागृजुसूत्रात्पर संग्रहादुत्तरः प्रतिपत्तव्य:, सर्वस्य वस्तुनः कथञ्चित्सामान्यविशेषात्मकत्वसम्भवात् । न चास्यैवं नैगमत्वानुषङ्गः; संग्रह विषय प्रविभागपरत्वात्, नैगमस्य तु गुणप्रधानभूतोभयविषयत्वात् । ६६० या पुनः कल्पनारोपितद्रव्यपर्यायप्रविभागमभिप्रेति स व्यवहाराभासः, प्रमाणबाधितत्वात् । न हि कल्पनारोपित एव द्रव्यादिप्रविभागः; स्वार्थक्रिया हेतुत्वाभावप्रसङ्गाद्गगनाम्भोजवत् । व्यवहारनय का लक्षण - संग्रहनय द्वारा ग्रहण किये हुए पदार्थों में विधिपूर्वक विभाग करना -भेद रूप से प्ररूपण करना व्यवहारनय है, पर संग्रहनय ने सत् धर्म [ स्वभाव ] के आधार से सबको एक रूप से सत् है ऐसा ग्रहण किया था अब उसमें व्यवहारनय विभाग चाहता है - जो सत् है वह द्रव्य है अथवा पर्याय है, इत्यादि विभाजन करता है । तथा अपर संग्रहनय ने सब द्रव्यों को द्रव्य पद से संगृहीत किया प्रथवा सब पर्यायों को पर्याय पद से संगृहीत किया था उनमें व्यवहार विभाग मानता है कि जो द्रव्य है वह जीव आदि रूप छह प्रकार का है, जो पर्याय है वह दो प्रकार की है सहभावी और क्रमभावी । व्यवहार का प्रपंच परसंग्रह के आगे से लेकर ऋजुसूत्र के क्योंकि सभी वस्तुयें कथंचित् सामान्य विशेषात्मक हैं । इसप्रकार से द्रव्य और पर्याय का विभाग विस्तार करने से इसको नैगमयत्व के प्रसंग होने की आशंका भी नहीं करना, क्योंकि व्यवहारनय संग्रह के विषय में विभाग करता है किन्तु नैगमनय तो गौण मुख्यता से उभय को [सामान्य विशेष या द्रव्य पर्याय ] विषय करता है | इसप्रकार अपर संग्रह और पहले पहले तक चलता है, व्यवहाराभास का लक्षण-जो केवल कल्पनामात्र से आरोपित द्रव्य पर्यायों में विभाग करता है वह व्यवहाराभास है, क्योंकि वह प्रमाण बाधित है । द्रव्यादिका विभाग काल्पनिक मात्र नहीं है, यदि ऐसा मानें तो अर्थ क्रिया का प्रभाव होगा, जैसे कि गगन पुष्प में अर्थ क्रिया नहीं होती । तथा द्रव्य पर्याय का विभाग परक इस व्यवहार को असत्य मानने पर उसके अनुकूलता से आने वाली प्रमाणों की प्रमाणता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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