________________
नयविवेचनम्
व्यवहारस्य चाऽसत्यत्वे तदानुकूल्येन प्रमाणानां प्रमाणता न स्यात् । अन्यथा स्वप्नादिविभ्रमानुकूल्येनापि तेषां तत्प्रसङ्गः । उक्त च
"व्यवहारानुकूल्यात्तु प्रमाणानां प्रमाणता । नान्यथा बाध्यमानानां ज्ञानानां तत्प्रसङ्गतः ।।" [लघी० का० ७०] इति ।
का भी भंग हो जावेगा । तथा द्रव्यादि का विभाग सर्वथा कल्पना मात्र है और उसका विषय करने वाले व्यवहार द्वारा प्रमाणों की प्रमाणता होती है ऐसा माने तो स्वप्न आदि का विभ्रमरूप विभाग परक ज्ञान से भी प्रमाणों की प्रमाणता होने लगेगी। कहा भी है-व्यवहार के अनुकूलता से प्रमाणों की प्रमाणता सिद्ध होती है, व्यवहार की अनुकूलता का जहां अभाव है वहां प्रमाणता सिद्ध नहीं होती, यदि ऐसा न मानें तो बाधित ज्ञानों में प्रमाणता का प्रसंग आयेगा ।।१।।
भावार्थ-पदार्थ द्रव्य पर्यायात्मक है द्रव्य और पर्याय में सर्वथा भेद या सर्वथा अभेद मानना असत् है जो प्रवादो सर्वथा अभेद मानकर उनमें लोक व्यवहारार्थ कल्पना मात्र से विभाग करते हैं उनके यहां अर्थ क्रिया का अभाव होगा अर्थात् यदि द्रव्य से पर्याय सर्वथा अभिन्न है तो पर्याय का जो कार्य [ अर्थ क्रिया ] दृष्टिगोचर हो रहा है वह नहीं हो सकेगा, जीव द्रव्य की वर्तमान की जो मनुष्य पर्याय है उसकी जो मनुष्यपने से साक्षात् अर्थ क्रिया प्रतीत होती है वह नहीं हो सकेगी। पुद्गल परमाणों के पिंड स्वरूप स्कंध की जो अर्थ क्रियायें हैं [ दृष्टिगोचर होना, उठाने धरने में आ सकना, स्थूल रूप होना, प्रकाश या अंधकार स्वरूप होना इत्यादि ] वे भी समाप्त होगी, केवल कल्पना मात्र में कोई अर्थ क्रिया [वस्तु का उपयोग में अाना] नहीं होती है जैसे स्वप्न में स्थित काल्पनिक पदार्थ में अर्थ क्रिया नहीं होती। अतः संग्रहनय द्वारा गृहीत पदार्थों में भेद या विभाग को करने वाला व्यवहारनय सत्य है एवं उसका विषय जो भेदरूप है वह भी पारमार्थिक है । जो लोक व्यवहार में क्रियाकारी है अर्थात् जिन पदार्थों के द्वारा लोक का जप, तप, स्वाध्याय, ध्यानरूप, धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ एवं स्नान, भोजन, व्यापार आदि काम तथा अर्थ पुरुषार्थ संपन्न हो, वे भेदाभेदात्मक पदार्थ वास्तविक ही हैं और उनको विषय करने वाला व्यवहारनय भी वास्तविक है क्योंकि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org