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जय-पराजयव्यवस्था
६४३ तहि भवतोपि हेतुत: साध्यसिद्धी दृष्टान्तोनर्थकः स्यात्, अन्यथा नास्य साधनांगतेति समानम् । ननु साध्यसाधनयोाप्तिप्रदर्शनार्थत्वाद् दृष्टान्तो नानर्थकः तत्र तदप्रदर्शने हेतोरगमकत्वात्; इत्यप्यसंगतम् ; सर्वानित्यत्वसाधने सत्त्वादेदृष्टान्ताऽसम्भवतोऽगमकत्वानुषंगात् । विपक्षव्यावृत्त्या सत्त्वादेर्गमकत्वे वा सर्वत्रापि हेतौ तथैव गमकत्वप्रसंगाद् दृष्टान्तोनर्थक एव स्यात् । विपक्षव्यावृत्त्या च हेतु समर्थयन् कथं प्रतिज्ञा प्रतिक्षिपेत् ? तस्याश्चानभिधाने क्व हेतुः साध्यं वा वर्तेत ? गम्यमाने प्रतिज्ञा
जैन-तो आपके यहां भी हेतु से साध्यसिद्धि होना माना जाता है तो दृष्टांत व्यर्थ होगा, तथा हेतु से साध्यसिद्धि नहीं होती है तो उसको साध्यसिद्धि का अंग नहीं मानना चाहिये।
बौद्ध-साध्य और साधन को व्याप्ति दिखाने वाला होने से दृष्टांत देना व्यर्थ नहीं है यदि उक्त साध्य साधन की व्याप्ति दिखायी नहीं जायगी तो हेतु अगमक अर्थात् साध्य का अज्ञापक बन जायगा ।
जैन-यह असंगत है, यदि दृष्टांत के बिना हेतु को अगमक माना जायगा तो मापके सुप्रसिद्ध अनुमान का [सर्वं क्षणिक सत्त्वात् ] सत्त्व नामका हेतु दृष्टांत के असम्भव होने से अगमक बन बैठेगा। यदि कहा जाय कि "सर्वं क्षणिक सत्त्वात् सब पदार्थ क्षणिक हैं-अनित्य हैं सत्त्वरूप होने से” इस अनुमान में सब पदार्थ पक्ष में अन्तर्भूत होने से सपक्षरूप दृष्टांत कहना अशक्य है तो भी सत्त्व हेतु विपक्ष जो अक्षणिक या नित्य है उससे व्यावृत्त है अतः इस विपक्षाद् व्यावृत्तिरूप बल से वह साध्य का गमक बन जाता है, तो इसीप्रकार सभी हेतु साध्य के गमक हो जायेंगे अन्त में दृष्टांत तो व्यर्थ ठहरता ही है। बड़ा आश्चर्य है कि पाप बौद्ध विपक्ष व्यावृत्ति से हेतु का समर्थन करते हुए भी प्रतिज्ञा का निराकरण किसप्रकार करते हैं ? यदि प्रतिज्ञा वाक्य न कहा जाय तो हेतु या साध्य कहां पर रहेगा ?
___ बौद्ध-प्रतिज्ञा तो गम्यमान हुआ करती है उसी में साध्य तथा हेतु रहते हैं ?
जैन-तो गम्यमान हेत का समर्थन होना चाहिए न कि कहे जाने पर, अर्थात् हेतु के बिना कहे ही उसका समर्थन प्रापको करना चाहिए ? हेतु गम्यमान है ही।
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