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________________ ६४२ प्रमेयकमलमार्त्तण्डे निग्रहः । ननु चास्य तदवचनेपि न निग्रहः प्रतिज्ञानिगमनयोः पक्षधर्मोपसंहारस्य सामर्थ्याद्गम्यमानत्वात् । गम्यमानयोश्च वचने पुनरुक्तत्वानुषङ्गात् । ननु तत्प्रयोगेपि हेतुप्रयोगमन्तरेण साध्यार्था - प्रसिद्धिः ; इत्यप्यपेशलम् ; पक्षधर्मोपसंहारस्याप्येवमवचनानुषङ्गात् । श्रथ सामर्थ्याद्गम्यमानस्यापि 'यत्सत्तत्सर्वं क्षणिकं यथा घटः संश्च शब्द:' इति पक्षधर्मोपसंहारस्य वचनं हेतोरपक्षधर्मत्वेनासिद्धत्वव्यवच्छेदार्थम् ; तर्हि साध्याधारसन्देहापनोदार्थं गम्यमानस्यापि पक्षस्य निगमनस्य च पक्षहतूदाहरणोपनयानामेकार्थत्वप्रदर्शनार्थं वचनं किन्न स्यात् ? न हि पक्षादीनामेकार्थत्वोपदर्शनमन्तरेण संगतत्वं भिन्नविषयपक्षादिवत् । ननु प्रतिज्ञातः साध्यसिद्धौ हेत्वादिवचनमनर्थकमेव स्यात्, अन्यथा नास्या: साधनांगतेति चेत्; घटते; शंका- पंच अवयवों का कथन नहीं करने पर भी निगह नहीं होगा, क्योंकि प्रतिज्ञा और निगमन पक्षधर्म के उपसंहार की सामर्थ्य से गम्य हो जाते हैं, गम्य होने पर भी उनको कहा जाय तो पुनरुक्तता होगी ? प्रति शंका -- प्रतिज्ञा आदि का प्रयोग होने पर भी हेतु प्रयोग बिना तो साध्य अर्थ की प्रसिद्धि ही है ? समाधान- -उपर्युक्त शंका प्रति शंका प्रयुक्त है, इसतरह के कथन से तो पक्ष धर्मका उपसंहार करना भी असिद्ध होगा । यदि कहा जाय कि पक्षधर्म का उपसंहार यद्यपि सामर्थ्य से गम्य है तो भी हेतु के अपक्षधर्मत्व की प्रसिद्धि है अर्थात् ग्रपक्षधर्मत्व के कारण हेतु प्रसिद्ध हेत्वाभास नहीं है, ऐसा हेतु के अपक्षधर्मत्व का व्यवच्छेद करने के लिये पक्षधर्म का उपसंहार करना घटित होता है, तो फिर साध्यधर्म के ग्राधार के विषय में उत्पन्न हुए संदेह को दूर करने के लिये सामर्थ्य से गम्य होने पर भी पक्ष [ प्रतिज्ञा ] का प्रयोग एवं पक्ष, हेतु, उदाहरण और उपनयों का एकार्थपना दिखाने के लिये निगमन का कथन क्यों नहीं घटित होगा ? अवश्य होगा । क्योंकि पक्ष हेतु श्रादि . का एकार्थत्व दिखाये बिना उक्त अवयवों की संगति नहीं बैठती, जैसे कि भिन्न भिन्न विषय वाले पक्ष हेतु की परस्पर संगति नहीं होती । बौद्ध - प्रतिज्ञा से साध्य की सिद्धि मानी जाय तो हेतु आदि का कथन व्यर्थ होगा, और यदि प्रतिज्ञा से साध्यसिद्धि नहीं होती तो उसको साध्यसिद्धि का अंग नहीं मानना चाहिये ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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