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________________ जय-पराजयव्यवस्था ६४१ वादिप्रतिवादिनोरन्यत रोऽसाधनाङ्गवचनादऽदोषोद्भावनाद्वा परं निगृह्णाति, असाधयन्वा ? प्रथमपक्ष स्वपक्षसिद्ध्यवास्य पराजयादन्योद्भावनं व्यर्थम् । द्वितीयपक्षे तु असाधनाङ्गवचनाद्युद्भावनेपि न कस्यचिज्जयः पक्षसिद्ध रुभयोरभावात् । यच्चास्य व्याख्यानम्-“साधनं सिद्धिः तदङ्ग त्रिरूपं लिङ्गम्, तस्याऽवचनं तूष्णींभावो यत्किञ्चिद्भाषणं वा। साधनस्य वा त्रिरूपलिङ्गस्याङ्ग समर्थनम् विपक्षे बाधकप्रमाणदर्शनरूपम्, तस्याऽवचनं वादिनो निग्रहस्थानम्" [ वादन्यायपृ० ५-६ ) इति । तत्पञ्चावयवप्रयोगवादिनोपि समानम्-शक्यं हि तेनाप्येवं वक्तुम्-सिद्ध्यङ्गस्य पञ्चावयवप्रयोगस्यावचनात्सौगतस्य वादिनो असाधनांगवचन के कहने पर प्रतिवादी स्वपक्ष को सिद्ध करते हुए वादी का निग्रह करता है या स्वपक्ष को बिना सिद्ध किये निग्रह करता है ? इसीप्रकार प्रतिवादी के अदोषोद्भावन अर्थात् दोष को प्रगट नहीं करने पर वादो स्वपक्ष को सिद्ध करते हुए उक्त प्रतिवादी का निग्रह करता है या स्वपक्ष को बिना सिद्ध किये निग्रह करता है ? स्वपक्ष को सिद्ध करते हुए निग्रह करता है ऐसा प्रथम विकल्प माने तो स्वपक्ष के सिद्धि से ही अन्य का पराजय हो चुका अब दूसरे दोष का उद्भावन व्यर्थ है। स्वपक्ष को सिद्ध किये बिना ही पर का निग्रह करता है ऐसा द्वितीय विकल्प माने तो असाधनांगवचन आदि का उद्भावन चाहे कर लेवे तो भी किसी का जय सम्भव नहीं, क्योंकि दोनों के ही पक्ष के सिद्धि का अभाव है। आगे बौद्ध के असाधनांगवचन निगृहस्थान का पुनः विवेचन करते हैं-सिद्धि को साधन कहते हैं उस साधन का अंग त्रिरूप हेतु है उसका प्रवचन मौन रहना या जो चाहे बोलना है। अथवा त्रिरूप हेतु का समर्थन करने को अंग कहते हैं अर्थात् विपक्ष में बाधक प्रमाण है हेतु विपक्ष में नहीं जाता है इत्यादि दिखाना साधन का अंग कहलाता है, उसका अवचन-कथन नहीं करना असाधनांगवचन नामका वादी का निगृहस्थान है । इस बौद्ध मंतव्य पर हम जैन का कहना है कि यह व्याख्यान अनुमान के पांच अवयव मानने वाले योग के भी घटित होगा, योग कह सकते हैं कि साध्यसिद्धि का कारण पंच अवयवों का प्रयोग है बौद्ध उसका कथन नहीं करते अतः बौद्ध प्रवादी का निग्रह होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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