SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 683
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६४० प्रमेयकमलमार्तण्डे एतेनासाधनाङ्गवचनादि निग्रहस्थानं प्रत्युक्तम् ; एकस्य स्वपक्षसिद्ध्यैवान्यस्य निग्रहप्रसिद्धः। ततः स्थितमेतत् "स्वपक्षसिद्धेरेकस्य निग्रहोन्यस्य वादिनः । नासाधनाङ्गवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः ॥" [ ] इति । इदं चानवस्थितम्"असाधनाङ्गवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः । निग्रहस्थानमन्यत्तु न युक्तमिति नेष्यते ।।" [वादन्यापृ० १] इति । अत्र हि स्वपक्षं साधयन् के पक्ष का निरसन करने के लिये कुछ व्यर्थ का कथन किया निग्रहस्थानरूप वचन बोले तो उतने मात्र से उसका पराजय नहीं होगा न वादी का जय । जय पराजय की निर्दोष व्यवस्था यह है कि वादी ने सदोष वाक्य कहा और प्रतिवादी ने उसका प्रकाशन किया तथा अपने प्रतिपक्ष को भली प्रकार सभा में सिद्ध कर दिया है तो प्रतिवादी का जय होगा । तथा वादी ने निर्दोष अनुमान कहा है और तदनन्तर सभा में स्वपक्ष सिद्ध कर दिया है तो वादी का जय होगा । एक के जय निश्चित होने पर दूसरे का पराजय तो नियम से होगा ही। इसप्रकार स्वपक्ष की सिद्धि पर ही जय का निश्चय होता है अन्यथा नहीं। यहां तक नैयायिक मताभिमत बाईस निग्रहस्थानों का निरसन हो चुका, अब आगे बौद्धाभिमत निग्रहस्थानों का सयुक्तिक निराकरण करते हैं। बौद्ध के द्वारा माने गये निग्रहस्थानों का भी उपर्युक्त रीत्या निरसन हुग्रा समझना चाहिए, वादी या प्रतिवादी में से एक के स्वपक्ष का सिद्ध होना ही दूसरे का निग्रह माना जाता है। इसी को अन्यत्र भी कहा है-एक वादी के स्वपक्ष के सिद्धि से अन्य का निग्रह हो जाता है, अतः वादी और प्रतिवादी में असाधनांगवचन और प्रदोषोद्भावन नाम के निग्रहस्थान मानना अयुक्त है। अतः बौद्ध की यह मान्यता कि वादी का असाधनांग वाक्य का कहना ही निग्रहस्थान है एवं प्रतिवादी का उक्त वाक्य में अदोषोद्भावनदोष प्रकट नहीं करना ही निग्रहस्थान है, बस यही दो निग्रहस्थान स्वीकारने चाहिए, अन्य नैयायिकाभिमत प्रतिज्ञा हानि आदि निग्रहस्थान व्यर्थ के हैं। इत्यादि सो असिद्ध है । इस विषय में बौद्ध के प्रति हम जैन प्रश्न करते हैं कि वादी के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy