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________________ ६४४ प्रमेयकमलमार्तण्डे विषये एवेति चेत्; तहि गम्यमानस्यैव हेतोरपि समर्थनं स्यान्न तूक्तस्य । अथ गम्यमानस्यापि हेतोमन्दमतिप्रतिपत्त्यर्थं वचनम् ; तथा प्रतिज्ञाबचने कोऽपरितोषः ? ____ यच्चेदम् -'असाधनांगम्' इत्यस्य व्याख्यान्तरम्-"साधर्म्यण हेतोर्वचने वैधम्यवचनं वैधयेण वा प्रयोगे साधर्म्यवचनं गम्यमानत्वात् पुनरुक्तम् । अतो न साधनांगम् ।" [ वादन्यायपृ० ६५ ] इत्यप्यसाम्प्रतम् ; यतः सम्यक्साधनसामर्थ्येन स्वपक्षं साधयतो वादिनो निग्रहःस्यात्, अप्रसाधयतो वा? प्रथमपक्षे कथं साध्यसिद्ध्यऽप्रतिबन्धिवचनाधिक्योपलम्भमात्रेणास्य निग्रहो विरोधात् ? नन्वेवं बौद्ध--यद्यपि हेतु गम्यमान [ ज्ञात ] है तो भी मंदमति के बोध के लिये उसका कथन करते हैं ? जैन-इसी तरह प्रतिज्ञा के कथन करने में आपको क्या असंतोष है ? अर्थात् जैसे गम्यमान हुआ भी हेतु मंदमति के लिये कहना पड़ता है वैसे गम्यमान हुई भी प्रतिज्ञा मंदमति के लिए कहनी पड़ती है । __बौद्ध के यहां “असाधनांग" इस पद का दूसरा व्याख्यान इसतरह हैसाधर्म्य द्वारा [ साधर्म्य दृष्टांत अर्थात् अन्वय दृष्टांत द्वारा ] हेतु के कथन करने पर पुनः वैधर्म्य का [ वैधर्म्य दृष्टांत अर्थात् व्यतिरेक दृष्टांत का ] कथन करना अथवा वैधर्म्य द्वारा [ व्यतिरेक दृष्टांत द्वारा ] हेतु के कथन करने पर पुनः साधर्म्य [अन्वय दृष्टांत का ] कथन करना पुनरुक्त दोष है क्योंकि साधर्म्य वैधर्म्य में से एक के कथन करने पर दूसरा स्वतः गम्य होता है अतः उक्त प्रयोग साधन का [ साध्यसिद्धि का ] अंग नहीं है । सो यह व्याख्यान भी असत् है। इसमें हमारा प्रश्न है कि उक्त पुनरुक्त को आपने असाधनांग कहा वह सम्यक् हेतु की सामर्थ्य से स्वपक्ष को सिद्ध करने वाले वादी के निग्रह का कारण है अथवा स्वपक्ष को सिद्ध नहीं करने वाले वादी के निग्रह का कारण है ? प्रथम विकल्प कहो तो जो साध्यसिद्धि का प्रतिबंधक [ रोकने वाला ] नहीं है ऐसे वचन के अधिक कहने मात्र से वादी का निग्रह होना कैसे शक्य है ? यह तो परस्पर विरोध वाली बात है कि सम्यक् हेतु की सामर्थ्य से पक्ष सिद्ध कर रहा है और उसका निगह [पराजय] भी किया जा रहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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