SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 677
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६३४ प्रमेयकमलमार्तण्डे (नं) तदज्ञानं नाम निग्रहस्थानम् । प्रजानन् कस्य प्रतिषेधं ब्रूयात् ? इत्यप्यसारम् ; प्रतिज्ञाहान्यादिनिग्रहस्थानानां भेदाभावानुषङ्गात् तत्राप्यज्ञानस्यैव सम्भवात् । तेषां तत्प्रभेदत्वे वा निग्रहस्थानप्रतिनियमाभावप्रसङ्गः परोक्तस्या ज्ञानादिभेदेन निग्रहस्थानानेकत्वसम्भवात् । "उत्तरस्याप्रतिपत्तिरप्रतिभा ।" [न्यायसू० ५।२।१८] साप्यज्ञानान्न भिद्यत एव । "निग्रहप्राप्तस्यानिग्रहः पर्यनुयोज्योपेक्षणम् ।" [ न्यायसू० ५।२।२१ ] पर्यनुयोज्यो हि निग्रहोपपत्त्या चोदनीयस्तस्योपेक्षणं 'निग्रहं प्राप्तोसि' इत्यननुयोग एव । एतच्च 'कस्य पराजयः' इत्यनुयुक्तया परिषदा वचनीयम् । न खलु निग्रहप्राप्तः स्वं कौपीनं विवृणुयात् । इत्यप्यज्ञानान्न व्यतिरिच्यत एव । उसका अज्ञान निग्रहस्थान होगा। क्योंकि वादी के वाक्य को जानेगा ही नहीं तो उसका प्रतिषेध कैसे करेगा ? आचार्य कहते हैं कि नैयायिक का यह निग्रहस्थान भी असार है, इससे तो आपके प्रतिज्ञा हानि आदि निग्रहस्थानों में कोई भेद ही नहीं रहेगा, क्योंकि उन सबमें भी अज्ञान की ही बहुलता है। यदि प्रतिज्ञा हानि आदि में अज्ञान समानरूप से होने पर भी उनको अज्ञान नामा निग्रहस्थान से भिन्न माना जाय तो निग्रहस्थानों की संख्या का कोई नियम नहीं रहेगा फिर तो वादी के वाक्य का अर्द्ध प्रज्ञान रहना आदि रूप अज्ञान के अनेक भेद होने से अनेक निग्रहस्थान होना संभव है। चौदहवां निग्रहस्थान-वादी के अनुमान वाक्य को ज्ञात करके भी समय पर उत्तर नहीं दे सकना प्रतिवादी का अप्रतिभा नामका निग्रहस्थान है, सो यह भी अज्ञान निग्रहस्थान से भिन्न नहीं है। पन्द्रहवां निग्रहस्थान-जिसका निग्रह प्राप्त था फिर भी उसका निग्रह नहीं करना पर्यनुयोज्य उपेक्षण नामका निग्रहस्थान है। निग्रह की उपपत्ति से अर्थात यह तम्हारा निग्रहस्थान होने से तम निगृहीत किये जाते हो ऐसा निग्रह प्राप्त वादी या प्रतिवादी को कहना चाहिये था किन्तु उसने उसकी उपेक्षा कर दी अतः यह पर्यनुयोज्य उपेक्षण निग्रहस्थान कहलाया। इसमें जैन का कटाक्ष है कि निग्रह प्राप्त वादी या प्रतिवादी जो भी पुरुष है उस निग्रह प्राप्त अन्यतर पुरुष की शेष अन्य पुरुष उपेक्षा करता है तो पुनः किसलिये कोई कहेगा कि मेरे निग्रह प्राप्ति की तुमने उपेक्षा की, इत्यादि, यह तो "किसका पराजय हुमा" ऐसा सभ्यजनों को पूछने पर सभ्यों द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org..
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy