________________
जय-पराजयव्यवस्था
६३५
"प्रनिग्रहस्थाने निग्रहस्थानानुयोगो निरनुयोज्यानुयोगः ।" [न्याय सू० ५।२।२२] तस्याप्यज्ञानात्पृथग्भावोनुपपन्न एव ।
"कार्यव्यासङ्गात्कथाविच्छेदो विक्षेपः" [न्यायसू० ५।२।१६] सिसाधयिषितस्यार्थस्याऽशक्यसाध्यतामवसीय कालयापनार्थ यत्कर्तव्यं व्यासज्य कथां विच्छिनत्ति-इदं मे करणीयं परिहीयते, तस्मिन्नवसिते पश्चात्कथयिष्यामि । इत्यप्यज्ञानतो नार्थान्तरमिति प्रतिपत्तव्यम् ।
"स्वपक्षे दोषाभ्युपगमात् परपक्षे दोषप्रसङ्गो मतानुज्ञा ।" [न्यायसू० ५।२।२०] यः परेण चोदितं दोषमनुद्धृत्य ब्रवीति-भवत्पक्षेप्ययं दोषः समान।' इति, स स्वपक्षे दोषाभ्युपगमात्परपक्षे दोषं प्रसजन् परमतमनुजानातीति मतानुज्ञा नाम निग्रहस्थानमापद्यते । इत्यप्यज्ञानान्न भिद्यते एव ।
कहा जाना चाहिए, क्योंकि निग्रह प्राप्त व्यक्ति स्वयं अपने कौपीन को नहीं खोलता है, अतः प्रथम बात यह हुई कि पर्यनुयोज्य उपेक्षण को सभ्यजन कहेंगे प्रतिवादी अथवा वादी नहीं, तथा दूसरी बात यह है कि इसको कोई भी कहे किन्तु अज्ञान निग्रहस्थान से यह पृथक् नहीं है।
सोलहवां निग्रहस्थान-जो निग्रह का स्थान नहीं है उसमें निग्रह दोष उठाना निरनुयोज्यानुयोग नामका निग्रहस्थान है। किन्तु यह भी अज्ञान निग्रहस्थान से पृथक् नहीं होने से सिद्ध नहीं होता।
सतरहवां निग्रहस्थान-कार्य के व्यासंग से कथा-वाद का विच्छेद कर देना विक्षेप नामा निग्रहस्थान है । जिस अर्थ को सिद्ध करने की इच्छा थी उसको उपस्थित करके पुनः वादी देखता है कि इसका सिद्ध होना अशक्य है, काल पूरा करने के लिये जो कर्तव्य था उसको गमाकर यह कहकर वादका विच्छेद कर देता है कि मेरा यह अवश्य कार्य नष्ट हो रहा है उसको पूरा करके पीछे इस विषय पर कहूंगा। इसप्रकार यह विक्षेप निग्रहस्थान है। प्राचार्य कहते हैं कि यह भी अज्ञान निग्रहस्थान से भिन्न नहीं है।
__ अठारहवां निग्रहस्थान-अपने पक्ष में दोष स्वीकार करके पर के पक्ष में दोष का प्रसंग लाना मतानुज्ञा नामका निग्रहस्थान है । जो वादी पर के द्वारा उपस्थित किये दोष को तो दूर करता नहीं और बोलता है कि तुम्हारे पक्ष में भी यह दोष समानरूप से मौजूद है। सो यह स्वपक्ष में दोष को मानकर पर पक्ष में दोष लगाता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org