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जय-पराजयव्यवस्था
किं वा यनान्तरीयिका साध्यसिद्धिस्तस्येति ? तत्राद्यः पक्षोऽयुक्तः; परोक्तमशेषमप्रत्युच्चारयतोपि दूषणवचनाऽव्याघातात् । यथा 'सर्वमनित्यं सत्त्वात्' इत्युक्ते 'सत्त्वात् इत्ययं हेतुविरुद्धः' इति हेतुमेवोच्चार्य विरुद्धतोद्भाव्यते-'क्षणक्षयाद्य कान्ते सर्वथार्थक्रियाविरोधात्सत्त्वानुपपत्तेः' इति, समर्थ्यते च, तावता च परोक्तहेतोर्दूषणाकिमन्योच्चारणेन ? अतो यन्नान्तरीयिका साध्यसिद्धिस्तस्यैवाऽप्रत्युच्चारणमननुभाषणं प्रतिपत्तव्यम् । अथैवं दूषयितुमसमर्थ : शास्त्रार्थपरिज्ञान विशेषविकलत्वात् ; तदाऽयमुतराऽप्रतिपत्तेरेव तिरस्क्रियते न पुनरननुभाषणादिति । ___ "अविज्ञातं चाज्ञानम् ।" [न्यायसू० ५।२।१७] विज्ञातार्थस्य परिषदा प्रतिवादिना यदविज्ञातं
निग्रहस्थान होता है । अननुभाषण के इस लक्षण में हम जैन पूछते हैं कि वादी के कहे हुए प्रतिज्ञा हेतु आदि अवयवों स्वरूप सम्पूर्ण वाक्य का निरसन नहीं करने रूप अननुभाषण कहलाता है किंवा जिसके बिना साध्य सिद्धि न हो ऐसे विषय में नहीं बोलना रूप अननुभाषण कहलाता है ? प्रथम पक्ष प्रयुक्त है, परवादी द्वारा प्रयुक्त सम्पूर्ण वाक्य का निरसनरूप कथन नहीं करे तो भी दूषण देना रूप वचन कह देने से कोई व्याघात नहीं है । जैसे सब पदार्थ अनित्य हैं सत्व होने से, ऐसा वादी के कहने पर यह तुम्हारा "सत्त्वात्" हेतु विरुद्ध है इसतरह केवल हेतु का उच्चारण कर प्रतिवादी उसमें विरुद्धता दिखाता है कि क्षण-क्षयादिरूप ऐकान्तिक पदार्थ में सर्वथा अर्थक्रिया का विरोध होने से सत्त्व सिद्ध नहीं होता, अर्थात् क्षणिक पदार्थ में अर्थक्रिया संभव नहीं और अर्थक्रिया के अभाव में क्षणिक पदार्थ का सत्व नहीं बनता अतः सत्त्व हेतु क्षणिक का विरोधी होने से विरुद्ध हेत्वाभास है, इसप्रकार प्रतिवादी उक्त हेतु में दोष प्रगट कर उस दोष को भली प्रकार समर्थित कर देता है, और इतने मात्र से ही वादी के हेतु में दूषण प्रा जाता है । फिर अन्य पक्ष आदि के निरसन से क्या लाभ ? इसलिये यह कहना चाहिये कि जिसके बिना साध्यसिद्धि न हो उस वाक्य का प्रत्युच्चारणरूप निरसन यदि प्रतिवादी नहीं करता तो उसका अननुभाषण निग्रहस्थान होता है। यदि पूर्वोक्तरीत्या हेत के दूषण देने में प्रतिवादी शास्त्रार्थ का विशेष ज्ञान नहीं होने से असमर्थ होता है तो उस प्रतिवादी का उत्तर अप्रतिपत्ति [उत्तर को न दे सकना जान नहीं सकना] निग्रह स्थान से ही तिरस्कार हुग्रा माना जायगा न कि अननुभाषण से ।
तेरहवां निग्रहस्थान-वादी के वाक्य को प्रतिवादी नहीं जाने तो वह अज्ञान नामका निग्रहस्थान है । सभ्य पुरुष द्वारा ज्ञात अर्थ को यदि प्रतिवादी नहीं जानता तो
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