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________________ ६३२ प्रमेयकमल मार्तण्डे इत्यादिवत् । ततः स्वेष्टार्थवाचकैस्तरेवान्यैर्वा शब्दैः सत्याः प्रतिपादनीयाः । तत्प्रतिपादकशब्दानां तु सकृत्पुन: पुनर्वाभिधानं निरर्थकं न तु पुनरुक्तम् । यद्य (द)प्यर्थापन्नस्य स्वशब्देन पुनवंचनं पुनरुक्तमुक्तम् । यथा 'उत्पत्तिधर्मकम नित्यम्' इत्युक्त्वाऽर्थादापन्नस्यार्थस्य योऽभिधायकः शब्दस्तेन स्वशब्देन ब्र यात् 'नित्यमनुत्पत्तिधर्मकम्' इति । तदपि प्रतिपन्नार्थप्रतिपादकत्वेन वैयान्निग्रहस्थानं नान्यथा। तथा चेदं निरर्थकान्न विशेष्येतेति । "विज्ञातस्य परिषदा त्रिरभिहितस्याऽप्रत्युच्चारणमननुभाषणम् ।" [ न्यायसू० ५।२।१६ ] अप्रत्युच्चारयन्किमाश्रयं परपक्षप्रतिषेधं ब्रूयात् ? इत्यत्रापि किं सर्वस्य वादिनोक्तस्याननुभाषणम्, निंदा करता है तो यह भी निंदा करता है, एवं धनांश द्वारा खरीदे हुए यंत्र स्वरूप यह भृत्य स्वामी के नृत्य करने पर स्वयं नृत्य करने लगता है । इसमें "हसति हसति" इत्यादि शब्द पुनः पुनः कहे हैं तो भी अर्थ भिन्न होने से पुनरुक्त दोष नहीं माना जाता है । तिसकारण से अपने इष्ट अर्थों को कहने वाले उन्हीं शब्दों द्वारा या अन्य शब्दों द्वारा सत्यार्थों का प्रतिपादन करना युक्त है। उक्त अर्थ के प्रतिपादन हो चुकने पर, उनके प्रतिपादक शब्दों का एक बार या पुनः पुनः कोई व्यक्ति कथन करता है तो वह निरर्थक दोष होगा न कि पुनरुक्त दोष । अर्थापत्ति से प्राप्त हुए अर्थ का स्वशब्द से पुनः कहना पुनरुक्तता है, जैसे किसी वादी ने कहा कि "उत्पत्ति धर्मवाला अनित्य होता है" ऐसा कहकर अर्थापत्ति से प्राप्त अर्थ को कहनेवाला जो शब्द है उस स्वशब्द से बोलता है कि नित्य अनुत्पत्ति धर्मवाला होता है, यहां पर वादी ने उत्पत्ति धर्मवाला अनित्य होता है ऐसा कहा था इसीसे नित्य अनुत्पत्ति धर्मवाला होना सिद्ध हो जाता था फिर भी वादी ने उसे कहा, ऐसे प्रसंग पर जो पुनरुक्तत्व कहा जाता है वह ज्ञात अर्थ का प्रतिपादक होने से व्यर्थता के कारण निग्रहस्थान कहा जायेगा अन्य प्रकार से नहीं । अर्थात् उपर्युक्त उदाहरण में पुनरक्त के कारण निग्रहस्थान नहीं हुआ है, व्यर्थता के कारण हुआ है, और यह व्यर्थता निरर्थक से कोई पृथक् सिद्ध नहीं होती। बारहवां निग्रहस्थान-वादी द्वारा तीन बार जिसको कह दिया है एवं जिसका अर्थ सभ्यजन जान चुके हैं उसके विषय में प्रतिवादी कुछ भी न बोले तो वह अननुभाषणनामा निग्रहस्थान होता है । जब प्रतिवादी कुछ भी प्रतिपक्ष रूप कथन नहीं करेगा तो वादी के पक्ष का निरसन किस ग्राश्रय से करेगा ? अतः उसका यह अननुभाषण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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