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________________ ६२० प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रतिज्ञां जहातीत्युच्यते प्रतिज्ञाश्रयत्वात्पक्षस्य" [न्यायभा० ५।२।२] । इति भाष्यकारमत मसङ्गतमेव ; साक्षादृष्टान्तहानिरूपत्वात्तस्यास्तत्रैव साध्यधर्मपरित्यागात् । परम्परया तु हेतूपनयनिगम नानां त्यागः, दृष्टान्तासाधुत्वे तेषामप्य साधुत्वात् । तथा च 'प्रतिज्ञाहानिरेव' इत्यसङ्गतम् । वात्तिककारस्त्वेवमाचष्ट-"दृष्टश्चासावन्ते स्थितश्चेति दृष्टान्तः पक्षः स्वपक्षः, प्रतिदृष्टान्त:, प्रतिपक्षः । प्रतिपक्षस्य धर्म स्वपक्षेऽभ्यनुजानन् प्रतिज्ञां जहाति । यदि सामान्यमैन्द्रियिकं नित्यं शब्दोप्येवमस्त्विति ।" [न्यायवा० ५।२।२] तदेतदप्युद्योतकरस्य जाड्यमाविष्करोति; इत्थमेव प्रतिज्ञाहानेरवधारयितुमशक्यत्वात् । प्रतिपक्षसिद्धिमन्तरेण च कस्यचिन्निग्रहाधिकरणत्वायोगात् । न खलु प्रतिपक्षस्य धर्म स्वपक्षेऽभ्यनु निगमन [प्रतिज्ञा को दुहराना निगमन है] तक पक्ष को ही छोड़ बैठता है । और पक्ष को छोड़ देने से प्रतिज्ञा को त्यागता है ऐसा कहा जाता है, क्योंकि पक्ष प्रतिज्ञा के श्राश्रयरूप है। गौतम के न्याय सूत्र पर भाष्य करने वाले पंडित का उपर्युक्त मत असंगत ही है, उक्त निग्रहस्थान साक्षात् रूप से तो दृष्टांतहानिरूप है, क्योंकि दृष्टांत में ही साध्यधर्म का त्याग किया गया है। और परम्परारूप से हेतु, उपनय और निगमन का त्याग किया है, क्योंकि दृष्टांत के असत् होने पर हेतु आदि भी प्रसत् होते हैं । अतः प्रतिहानि निग्रहस्थान में प्रतिज्ञाहानि ही हुई ऐसा कहना असंगत है । न्याय सूत्र पर वात्तिक लिखने वाले उद्योतकर वार्तिककार इसप्रकार कहते हैं-अन्ते दृष्टः, अन्ते स्थितः वा दृष्टांतः जो अंत में दिखे या स्थित होवे सो दृष्टांत कहलाता है, इससे पक्ष और स्वपक्ष लेना, प्रतिपक्ष को प्रतिदृष्टांत कहते हैं। वादी प्रतिपक्ष के धर्मको अपने पक्ष में स्वीकार कर प्रतिज्ञा को छोड़ देता है, वह कहता है कि यदि इन्द्रियग्राह्य सामान्य नित्य है तो शब्द भी इसप्रकार होवे । उद्योत कर पंडित का यह कथन भी उनके अज्ञान को प्रगट कर रहा है क्योंकि इसीप्रकार से ही प्रतिज्ञा की हानि होती है अन्यथा नहीं ऐसा अवधारण करना अशक्य है । तथा प्रतिपक्ष की सिद्धि हुए बिना किसी का निग्रह करना भी नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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