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________________ जय-पराजयव्यवस्था ६२१ जानत एव प्रतिज्ञात्यागो येनायमेक एव प्रकारः प्रतिज्ञाहानौ स्यात् । अघिपादिभिराकुलीभावात् प्रकृत्या सभाभीरुत्वादऽन्यमनस्कत्वादेर्वा निमित्तात्किञ्चित्साध्यत्वेन प्रतिज्ञाय तद्विपरीतं प्रतिजानतोप्युपलम्भात् पुरुषभ्रान्तेरनेक कारणत्वोपपत्तेरिति । तया “प्रतिज्ञातार्थप्रतिषेधे धर्मविकल्पात्तदर्थनिर्देशः प्रतिज्ञान्तरम् ।" [न्यायसू० ५।२।३] प्रतिज्ञातार्थस्य ऽनित्यः शब्द इत्यादरैन्द्रियिकत्वाख्यस्य हेतोर्व्यभिचारोपदर्शनेन प्रतिषेधे कृते तं दोषमनुधरन् धर्मविकल्पं करोति 'किमयं शब्दोऽसर्वगतो घटवत्, किं वा सर्वगतः सामान्य वत्' इति । यद्यसर्वगतो घटवत् ; तर्हि तद्वदेवानित्योस्स्वित्येतत्प्रतिज्ञान्तरं नाम निग्रहस्थानं सामर्थ्याऽपरिज्ञानात् । स हि पूर्वस्या: 'अनित्यः शब्दः' इति प्रतिज्ञाया: साधनायोत्तराम् 'असर्वगत: शब्दोऽनित्यः' इति प्रतिज्ञामाह । न च प्रतिज्ञा प्रतिज्ञान्तरसावने समर्थाऽतिप्रसङ्गात् । बनता । दूसरी बात यह है कि प्रतिपक्ष के धर्म को अपने पक्ष में स्वीकार करनेवाले के हो प्रतिज्ञा का त्याग होता हो सो बात नहीं है, जिससे कि प्रतिज्ञाहानि में यही एक प्रकार दिखाया जाय । प्रतिज्ञाहानि को छोड़ देने के अनेक प्रकार संभव हैं, देखिये प्रतिपक्षी पुरुष द्वारा तिरस्कृत होने से प्राकुलित होकर वादी प्रतिज्ञा को छोड़ बैठता है, अथवा स्वभावत: सभाभीरु होने से या अन्यमनस्क [ अन्यत्र मन के जाने से ] किंवा अन्य किसी निमित्त से किसी एक धर्म को साध्यरूप से स्वीकार कर पुनः उससे विपरीत धर्म को मानते हुए देखा गया है, पुरुष को भ्रान्ति होने के तो अनेक कारण हुआ करते हैं । प्रतिज्ञा किये हुए अर्थ का प्रतिषेध होने पर धर्म का भेद करके अर्थ निर्देश करना प्रतिज्ञान्तर निग्रहस्थान है, जैसे वादी ने "शब्द अनित्य है इन्द्रियग्राह्य होने से ऐसा प्रतिज्ञा वाक्य कहा, अब प्रतिवादी इन्द्रियग्राह्यत्व हेतु में व्यभिचार दोष दिखाकर उसका खंडन करता है उस समय वादी उस व्यभिचार दोष को तो हटाता नहीं और धर्म में साध्यधर्म में] भेद करता है वह प्रतिवादो से कहता है-यह शब्द क्या घट के समान असर्वगत है, या सामान्य के समान सर्वगत है ? यदि घट के समान असर्वगत है तो उसी घट के समान अनित्य भी होवे । इसतरह प्रतिज्ञा को पलट देना प्रतिज्ञान्तर नामा निग्रहस्थान है, सामर्थ्य का ज्ञान न होने से वादो ऐसा कर बैठता है, क्योंकि वादी पहले तो शब्द अनित्य है ऐसी प्रतिज्ञा करता है और उस प्रतिज्ञा को साधने के लिये “असर्वगत शब्द अनित्य है" ऐसो दूसरी प्रतिज्ञा कहता है किन्तु प्रतिज्ञा अन्य प्रतिज्ञा को सिद्ध करने में समर्थ नहीं होती है। इससे तो अतिप्रसंग पाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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