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________________ जय-पराजयव्यवस्था ६१६ इति सामान्यलक्षणम् । विपरीता कुत्सिता वा प्रतिपत्तिविप्रतिपत्तिः। अप्रतिपत्तिस्त्वारम्भविषयेऽनारम्भा, पक्षमभ्युपगम्य तस्याऽस्थापना, परेण स्थापितस्य वाऽप्रतिषेधः, प्रतिषिद्धस्य चाऽनुद्धार इति । प्रतिज्ञाहान्यादिव्यक्तिगतं तु विशेषलक्षणम् । तत्र प्रतिज्ञाहानेस्तावल्लक्षणम्-"प्रतिदृष्टान्तधर्म्य (र्मा)नुज्ञा स्वदृष्टान्ते प्रतिज्ञाहानिः" [न्यायसू० ५।२।२] “साध्यधर्मप्रत्य नीकेन धर्मेण प्रत्यवस्थितः प्रतिदृष्टान्तधर्म स्वदृष्टान्तेऽनुजानन् प्रतिज्ञा जहातीति प्रतिज्ञाहानिः। यथा 'अनित्यः शब्द एन्द्रियिकत्वाद् घटवत्' इत्युक्त परः प्रत्यवतिष्ठतेसामान्यमैन्द्रियिकं नित्यं दृष्टम् , कस्मान्न तथा शब्दोपि ? इत्येवं स्वप्रयुक्तस्य हेतोराभासतामवस्यन्नपि कथावसानमकृत्त्वा प्रतिज्ञात्यागं करोति-यद्येन्द्रियिक सामान्यं नित्यं कामं घटोपि नित्योस्त्विति । न (स) खल्वयं ससाधनस्य दृष्टान्तस्य नित्यत्वं प्रसजनिगमनान्तमेव पक्षं जहाति । पक्षं च परित्यजर सामान्य लक्षण गौतम के न्यायसूत्र में इस प्रकार है-विप्रतिपत्ति और अप्रतिपत्ति को निग्रहस्थान कहते हैं। विपरीत अथवा कुत्सित प्रतिपत्ति होना [समझ] विप्रतिपत्ति है और जिसका प्रारम्भ करना हो उसका प्रारम्भ न करना अप्रतिपत्ति है, अर्थात् पक्ष को स्वीकार कर उसको उपस्थित नहीं करना या पर के द्वारा स्थापित पक्षका निषेध नहीं करना अथवा पर के द्वारा अपना पक्ष निषिद्ध करने पर उसका पुनः परिहार नहीं करना निग्रहस्थान है, यह निग्रहस्थानों का सामान्य लक्षण हुना। इन निग्रहस्थानों का प्रतिज्ञाहानि प्रादि रूप विशेष लक्षण भी प्रतिपादित किया गया है। प्रथम प्रतिज्ञाहानि का लक्षण बतलाते हैं-अपने दृष्टांत में प्रतिदृष्टांत [पर के दृष्टांत] के धर्म को स्वीकार करना प्रतिहानि नामका निग्रहस्थान है [साध्यधर्म और धर्मी अर्थात् पक्ष के समुदाय को प्रतिज्ञा कहते हैं उसकी हानि करना प्रतिज्ञाहानि है] जब प्रतिवादी वादी के साध्यधर्म से विपरीत धर्म द्वारा प्रश्न करता है तब वादी प्रतिदृष्टांत के धर्म को अपने दृष्टांत में स्वीकार कर प्रतिज्ञा को छोड़ बैठता है, यही प्रतिज्ञाहानि है । जैसे "शब्द अनित्य है इन्द्रियग्राह्य होने से घट के समान" इस प्रकार वादी के कहने पर प्रतिवादी प्रश्न उपस्थित करता है कि सामान्य नामा पदार्थ इन्द्रियग्राह्य होने पर भी नित्य देखा जाता है, उसप्रकार शब्द भी नित्य क्यों नहीं है ? ऐसा प्रश्न होने पर वादी अपने हेतु के असत्पने को जानते हुए भी वाद को समाप्त न कर प्रतिज्ञा को त्याग देता है कि यदि इन्द्रियग्राह्य सामान्य नित्य है तो घट भी नित्य हो जायो। सो यह वादी साधन सहित दृष्टांत को नित्यरूप स्वीकार कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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