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________________ जय-पराजयव्यवस्था ६१३ परोपन्यस्त जात्युद्भावनसामर्थ्यम् ; तहि जातिप्रयोगेप्युत्तराभासवादिनः सम्यगुत्तराभिधानासामर्थ्यमेवावसीयेत न परोद्भावितजातिपरिहारासामर्थ्यम् । ननु सदुत्तराभिधानासामर्थ्यादेव तत्परिहारासामर्थ्यनिश्चयः, तत्सद्भावे हि न सदुत्तराभिधानासामर्थ्य स्यात् ; एवं तहि सत्साधनाभिधानसामर्थ्यादेवास्य परोपन्यस्तजात्युद्भावनशक्त्यवसायोस्तु, तदभावे तदभिधानसामर्थ्यायोगात् । सत्साधनाभिधानसमर्थस्यापि कदाचिदऽसदुत्तरेण व्यामोहसम्भवान्न तदुद्भावनसाथ्यंमवश्यंभावीति चेत् ; तहि जातिवादिनः सदुत्तराभिधानासमर्थस्यापि स्वोपन्यस्तपरोद्भावितोत्तराभासपरिहारसामर्थ्यसम्भवात्पुनरुपन्यासश्च योग-वादी निर्दोष हेतु कहता है तो उससे इतना ही ज्ञात होता है कि यह निर्दोष हेतु प्रयोग की सामर्थ्य रखता है, किंतु प्रतिवादी द्वारा प्रयुक्त जाति को प्रकाशित कर सकता है या नहीं कर सकता इस सामर्थ्य का ज्ञान तो नहीं हो सकता ? जैन-तो फिर, प्रतिवादी द्वारा जाति प्रयोग करने पर इतना ही ज्ञात होता है कि यह सम्यक् उत्तर देने में समर्थ नहीं है, किंतु इससे यह तो ज्ञात नहीं होगा कि वादो उक्त जाति का परिहार करने की सामर्थ्य रखता है या नहीं। यौग-जाति दोष के परिहार के असमर्थपने का निश्चय तो सत उत्तर के कथन नहीं करने से ही हो जायगा, क्योंकि दोष परिहार की शक्ति रहने पर सत उत्तर के कथन करने की असमर्थता रह नहीं सकती ? जैन- अच्छा तो सत् हेतु के कथन की सामर्थ्य से इस वादी के अंदर प्रतिवादी द्वारा कही जाने वाली जाति को प्रगट करने का सामर्थ्य सिद्ध हो जानो, क्योंकि इस सामर्थ्य के बिना वादी सत् हेतु के कथन का सामर्थ्य रख नहीं सकता। योग-वादी सत् हेतु प्रयोग का सामर्थ्य भले ही रखता हो तो भी कदाचित प्रतिवादी के असत् उत्तर से व्यामोह को प्राप्त हो सकता है, इसलिये वादी में उक्त जाति को प्रकाशित करने का सामर्थ्य होना अवश्यंभावी नहीं है ? जैन-तो फिर सत् उत्तर के कथन का असामर्थ्य रखने वाले जाति प्रयोक्ता पुरुष के भी अपने कहे हुए जाति में पर जो वादी है उसके द्वारा उक्त उत्तराभास का परिहार का सामर्थ्य संभव होने से चतुर्थ जाति को उपस्थिति अपेक्षित होगी। पुनश्च Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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