SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 657
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६१४ प्रमेयकमलमार्तण्डे तुर्थोऽपेक्षणीयः स्यात् । साधनवादिनोपि तत्परिहारनिराकरणाय पञ्चमः । पुनर्जातिवादिनस्तन्निराकरणयोग्यतावबोधार्थ षष्ठ इत्यन वस्थानं स्यात् । ननु नायं दोषः पर्यनुयोज्योपेक्षणस्य प्रतिवादिनाऽनुद्भावनात्, 'कस्य पराजयः' इत्यनुयुक्ताः प्राश्निका एव हि पूर्वपक्षवादिन : पर्यनुयोज्योपेक्षणमुद्भावयन्ति । न खलु निग्रहप्राप्तो जातिवादी स्वं कोपीनं विवृणुयात् । तहि जात्यादिप्रयोगमपित एवोद्भावयन्तु न पुन: पूर्वपक्षवादी । पर्यनुयोज्योपेक्षणं ते पूर्वपक्षवादिन एवोद्भावयन्ति न जात्यादिवादिनो जात्यादिप्रयोगमिति महामाध्यस्थ्यं तेषां येनैकस्य दोषमुद्भावयन्ति नापरस्येति । ततः पूर्वपक्षवादिनं तूष्णीभावादिकमारचयन्तमुत्तराप्रतिपत्तिमुद्भावयन्नव जातिवादी निगृह्णातीत्यभ्युपगन्तव्यम् । सत् हेतु प्रयोक्ता वादी को भी उसके परिहार का निराकरण करने के लिये पंचम का उपन्यास करना होगा। फिर जाति वादी जो प्रतिवादी है उसमें उक्त दोष के निराकरण करने की योग्यता जानने के लिये छठी जाति कहनी होगी, इसप्रकार अनवस्था होती चली जायगी। योग-यह अनवस्था दोष नहीं पाता, पर्यनुयोज्य उपेक्षण अर्थात् प्रश्न या शंका का प्रसंग होने पर भी उसको न उठाना उपेक्षा करना पराजय का अवसर है, इस पर्यनुयोज्य उपेक्षण का प्रतिवादी द्वारा उद्भावित नहीं किया जाता, किंतु "किसका पराजय हुआ" इसप्रकार सभ्य प्राश्निकको पूछने पर वे पूर्व में पक्ष स्थापित करने वाले वादो के इस पर्यनुयोज्य उपेक्षण को प्रगट करते हैं । जाति का प्रयोक्ता स्वयं तो अपने गुह्यांग को नहीं खोलेगा ? अर्थात् मैंने असत् उत्तररूप जाति का प्रयोग किया है तमने क्यों नहीं प्रगट किया, ऐसा तो कोई कह नहीं सकता। जैन-ऐसी बात है तो प्राश्निक पुरुष प्रतिवादी के जाति दोष आदि प्रयोग को प्रगट करें, वादो को इसको प्रगट नहीं करना चाहिए । प्राश्निक जन वादी के प्रश्न करने योग्य प्रसंग की उपेक्षा करना रूप पर्यनुयोज्य उपेक्षण का उद्भावन करें, और जाति प्रयोक्ता प्रतिवादी के जाति आदि प्रयोग का उद्भावन नहीं करे, ऐसा तो उनका यह कोई महामाध्यस्थ होगा, जिससे कि वे एक के दोष को तो प्रकट करे और दूसरे के दोष को न करे। अर्थात् मध्यस्थ प्राश्निक ऐसा नहीं कर सकते, वे तो जो भी सभा में असत् प्रलाप करेगा उसी का दोषोद्भावन कर देंगे। अतः प्राश्निक जनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy